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कहते हैं कि जब किसी मोहल्ले में एक समान विचारधारा वाले ज्यादा लोग रहते हैं, तो वहां बसने वाले अन्य लोग भी ऐसे लोगों से प्रभावित होकर उनकी ही तरह बन जाते हैं।ऐसे ही एक मोहल्ले की महिलाएं मुझे सादगी, संयम, ममता व दयालु की प्रतीक नजर आई।एक-दूसरे के दुख-सुख में शामिल होना। आपसी मदद के लिए हमेशा तैयार रहना।कभी आपस में न झगड़ना आदि सभी गुण इस मोहल्ले की महिलाओं में थे।
करीब पच्चीस साल पहले देहरादून में राजपुर रोड स्थित सेंट्रल ब्रेल प्रेस से सटकर राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान की कालोनी विकसित हो रही थी।शुरूआत में वहां आठ मकान बने और कर्मचारियों को आवंटित कर दिए गए।उस समय राजपुर रोड पर ट्रैफिक काफी कम रहता था।जहां कर्मचारियों के मकान थे, वहां से आबादी करीब पौन किलोमीटर दूर थी।मुख्य मार्ग से सटी इस छोटी की कालोनी में पांच परिवार दृष्टिहीन कर्मचारियों के और तीन परिवार सामान्य कर्मचारियों के थे।सभी कर्मचारियों में आपसी मेलमिलाप था।दृष्टिहीन कर्मचािरयों में सभी की पत्नी व बच्चे भी थे, जो सामान्य थे।इन परिवारों में आपसी मेलमिलाप भी काफी अधिक था।
तब राजपुर रोड शाम सात बजे के बाद से सुनसान हो जाती थी।आवागमन के लिए लोगों को काफी परेशानी उठानी पड़ती थी।मसूरी के पहाड़ों व बरसाती नदियों में खनन का व्यापार तब जोरों पर था।ऐसे में सड़क पर ट्रक ज्यादा चलते थे। बरसात के दिन थे।रात करीब साढ़े आठ बजे कालोनी के सामने सड़क पर एक तारकोल के ड्रमों से भरा ट्रक पलट गया।इस दुर्घटना के होते ही कालोनी के लोगों में हड़कंप मच गया।रात को गहरा अंधेरा था और बारिश भी थी।साथ ही कालोनी में रहने वाले आठ परिवारों में सामान्य पुरुषों की संख्या भी तीन थी।बाकी दृष्टिहीन थे।ऐसे में महिलाओं ने ही मोर्चा संभाला टॉर्च व लालटेन लेकर वह वहां पहुंच गई, जहां ट्रक पलटा हुआ था।तभी मैं और मेरा एक मित्र भी वहां पहुंच गए।सड़क किनारे गहरा खाला था।वहां तारकोल से भरे भारी ड्रम चारों तरफ बिखरे पड़े थे।इन ड्रमों की चपेट में आकर कई मजदूर घायल होकर लहूलुहान हो रखे थे।इधर-उधर करीब आठ मजदूरोंे को अंधेरे में तलाश किया गया।इनमें से अधिकांश बेहोश थे, तब यह जानना भी मुश्किल था कि कौन जिंदा है या मुर्दा।कई तमाशबीन भी मौके पर आ गए, लेकिन उन्होंने तमाशा ही देखा।किसी घायल को उठाकर सड़क किनारे लाने की जहमत तक नहीं उठाई।
तब गजब की शक्ति नजर आई उन महिलाओ में। साक्षात दुर्गा का रूप लेकर महिलाओं ने मुझ जैसे दो-तीन युवाओं की मदद से घायलों को उठाकर सड़क तक पहुंचाया।तभी एक खाली विक्रम (टैंपो) सड़क पर नजर आया।महिलाओं ने उसे रुकवाया और घायलों को अस्पताल तक ले जाने में मदद मांगी।महिलाओं के हौंसले को देख चालक भी मदद को तैयार हो गया।बेहोश मजदूरों को बिक्रम में डाला गया।महिलाओं ने चालक को पैसे देने का प्रयास किया, लेकिन चालक ने पैसे लेन से इंकार कर दिया।वह मजदूरों को टैंपो में लादकर अस्पताल की तरफ रवाना हो गया। अगले दिन पता लगा कि समय से उपचार मिलने पर सभी मजदूरों की जान बच गई।
इसके बाद भी महिलाओं ने झािड़यों में तलाश किया कि कहीं अन्य घायल मजदूर तो नहीं पड़ा है।पूरी तसल्ली के बाद ही सभी अपने घर को रवाना हुए।मैं जब घर पहुंचा तो मेरे कपड़े पहनने लायक नहीं बचे थे।मेरी तरह मजदूरों के अन्य मददगारों का भी यही हाल रहा होगा। कपड़े खून से रंग गए थे।अब राजपुर रोड पर जब भी मैं ब्रेल प्रेस की तरफ से गुजरता हूं, तो वहां मुझे काफी कुछ बदला हुआ नजर आता है।जिस कालोनी में सिर्फ आठ मकान थे, वहां अब मकानों की कतार बनी हुई थी।उनमें रहने वाले अधिकांश चेहरे भी बदल गए हैं।फिर भी मैं दुर्घटना की बात याद करके कालोनी की मातृ शक्ति को मन ही मन प्रणाम करना नहीं भूलता।
भानु बंगवाल
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