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अमर उजाला अखबार से आज का विचार- रंगभेद का राष्ट्रमंडल—-

भारत स्वाभिमान
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http://amarujala.com/Vichaar/VichaarColDetail.aspx?
nid=40&tp=b&Secid=31रंगभेद का राष्ट्रमंडल
Story Update : Saturday, October 02, 2010 8:11 पम

गांधी जी सौभाग्यशाली थे कि उन्हें 19वीं सदी में दक्षिण अफ्रीका में ‘केवल गोरों के लिए’ आरक्षित ट्रेन से फेंका गया था। यदि वह 21वीं सदी की दिल्ली में चल रहे या गाड़ी चला रहे होते, तो उन्हें तिहाड़ जेल में डाल दिया गया होता। 21वीं सदी की दिल्ली में यह एक किस्म का रंगभेद ही है। कोई भी गाड़ी चलानेवाला, जो कॉमनवेल्थ लेन में घुसेगा, सीधे तिहाड़ जेल जाएगा। यह लेन आम भारतीयों के लिए नहीं, केवल राष्ट्रमंडल खेलों की गाड़ियों के लिए है। गांधीजी को जानते हुए हम कह सकते हैं कि मनमोहन सरकार की इस भेदभाव वाली नीति का विरोध करने वाले वह पहले व्यक्ति होते और खुशी-खुशी तिहाड़ जाते।
राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजक और सरकार ने यह विभेदकारी नियम यह सोचकर बनाया है, जिससे कि राष्ट्रमंडल खेलों की गाड़ियां ट्रैफिक जाम में फंसी न रह जाएं। आम भारतीय भी ट्रैफिक जाम से निजात चाहते हैं। लेकिन कॉमनवेल्थ गेम्स की गाड़ियों को जैसा महत्व दिया गया है, वैसा आम भारतीयों को नहीं दिया जा सकता। भारतीयों की यह आकांक्षा 19वीं सदी के गांधी की उस आकांक्षा से अलग नहीं है, जिसमें वह गोरों के लिए आरक्षित आरामदेह डब्बे में घुसे, लेकिन अश्वेत होने के कारण बाहर फेंक दिए गए! आम भारतीयों को यातायात के साधन बेशक उपलब्ध हैं, लेकिन उन्हें राष्ट्रमंडल खेल वाले खास क्षेत्र में घुसने की इजाजत नहीं दी जा सकती। क्या यह भेदभाव नहीं है?
यह भेदभाव 21वीं सदी के भारत में हो रहा है, क्योंकि कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन के पीछे जनता की भागीदारी का उद्देश्य नहीं, बल्कि कुछ विशिष्ट लोगों को लाभ पहुंचाने की मंशा है। अगर लोगों की बेहतरी की भावना काम कर रही होती, तो आम भारतीयों और राष्ट्रमंडल खेलों की गाड़ियों में अंतर करनेवाला लेन कतई नहीं होता। बड़े आयोजनों में यातायात की समस्या होती ही है। फिर दिल्ली के विशाल ट्रैफिक को देखते हुए यातायात के बेहतर प्रबंधन की जरूरत समझी जा सकती है। लेकिन लोग क्या चाहते हैं, इसकी भी फिक्र होनी चाहिए।
इसके लिए ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं थी। देश के पास इन खेलों की तैयारी के लिए पर्याप्त समय था। जब उद्घाटन समारोह की घोषणा हुई थी, तब दिल्ली में नई यातायात व्यवस्था लागू करने का पर्याप्त समय था। इसरो ने इससे भी कम समय में चंद्रयान भेजा था। सवाल है, देश की प्रतिष्ठा इस खेल से ही क्यों जुड़ी है? दिल्ली में एक हवाई अड्डे के निर्माण की लागत अरबों डॉलर में होने का मतलब देश का ‘सफल होना’ नहीं है। कंकरीट, स्टील और शीशे के ढांचे देश की प्रतिष्ठा तय नहीं कर सकते। यह प्रतिष्ठा लोगों की महानता से ही मिल सकती है। फिर जब राज्य भारतीयों और राष्ट्रमंडल खेलों की गाड़ियों में फर्क करे, तब यह उम्मीद करना भी बेकार है कि वह आम लोगों की महानता स्वीकारेगा।
पिछले पूरे महीने राष्ट्रमंडल खेल के प्रबंधन ने बार-बार यह उद्घाटित किया कि घोटाले के कारण वैश्विक रूप से भारत की छवि खराब हुई है। इसने उस मशहूर कहावत को साबित कर दिया है कि भारतीय व्यवस्था पहले की तरह ही भ्रष्ट है, और पैसे के पीछे भारतीय अपने देशवासियों को भी खुशी-खुशी रौंद सकते हैं। राष्ट्रमंडल खेल इसे पूरी तरह से साबित करता है। इसलिए तथ्य यह है कि विश्व मंच पर भारत सफल नहीं हुआ है।
edit@amarujala.com

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