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रूई पिंजते पिंजारे

भारत बाप है, मा नही
भारत बाप है, मा नही
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मेरा मानना है कि धर्म के विषय में धर्म के पूरे ज्ञानी को ही लिखने बोलने का अधिकार होना चाहिए । जैसे बिमारी के लिए दवा का परचा लिखने का अधिकार डॉक्टर के पास है । कोइ नही चाहता बिमार पडने पर डॉक्टरी किताबें पढने लगे और खूद डॉक्टर बन जाए । लेकिन धर्म में ऐसा नही है, धर्म की किताबें पढ कर या नही पढ कर भी धर्म के डॉक्टर बनने की सभी की इच्छा हो जाती है । जहां तक हो सके मैं ये इच्छा दबाता आया हूं ।

लेकिन सोसियल मिडिया में, और इधर फेसबूक में लोग मुझे टॅग मारते हैं, वहां मैं देखता हूं कि लोग पिंजारों की तरह पिंजण करते धर्म की बातों को तार तार करते है, बहसबाजी करते हैं । कभी लोग गालीगलौच पर भी उतर आते हैं । कैसा विरोधाभास, धर्म प्रजा में एकता लाता है, यहां तो लोग नफरत से खूद बिखर जाते हैं । ये सब मुझे न चाहते हुए भी लिखने को प्रेरित करता है ।

रूई और पिंजारे लोग तो सभ्यता के आधार स्थंभ है । नंगे जंगली मानव समाज को कपडे पहनाए । पिंजारा अशुध्ध रूई को साफ कर के कपडे बनाने के लायक करता है । बूनकर रूई के तारों को खडा और आडा, टेढा और मेढा कर के, अनेक प्रकार की मायाजाल से कपडा बनाता है । दरजी मानव को उनकी आकृति के नाप से कपडा पहना देता है । मानव नंगा ना दिखे इसलिए रूई, पिंजारे, बूनकर और दरजी अपना अपना धर्म निभाते रहे हैं, निभा रहे हैं और निभाते रहेन्गे ।

कुछ नंगे शैतानो को छोड कर सभी चाहते हैं कि मानव समुदाय सदा कपडे पहनता ही रहे । भले कपडे की बुनावट में रूई के तार खडे-आडे, तेढे-मेढे हो ।

मात्र कपडे पहन लेने से ही मानव सभ्य नही हो जाता है । कपडा जरूर सभ्यता का एक बहुत बडा अंग है, इसलिए तो दानव समुदाय मानव के कपडे खिंचने पर उतारू है, लेकिन कपडा सबकुछ नही । तन के उपरांत मन के लिए भी कपडे होते हैं, धर्म ने मानव मन को भी मानसिक कपडे पहना दिये हैं । मानसिक कपडे ही सब से महत्वपूर्ण है । मानसिक कपडे ही तन पर कपडे पहनने के लिए आदमी को मजबूर करता है । ये कपडे ही मानव के मानस में छुपे शैतान को बाहर नही निकलने देते हैं । जी हां, मानव के मानस में साधु और शैतान शुरु से है । मानव शारीर तो मात्र हार्डवेर है, मानस सोफ्टवेर है । सोफ्टवेर में काम के और काम बिगाडने के(वायरस) प्रोग्राम होते हैं । ना हो तो बादमें आ जाते हैं । मानव के मानस में भी शैतानी वायरस शुरु से ना हो तो बाद में आ जाते हैं । उसे दबाना जरूरी था । धर्म ने ही एन्टिवायरस बन कर शैतानो को दबा दिया है । इसलिए ही मैने धर्म को मानसिक कपडा कहा है, आदमी के मानस को नंगा नही होने देता है ।

बडी उमर के लोगों ने निरिक्षण किया होगा कि भारत में आखरी २५-३० साल से क्राईम का ग्राफ बढता गया है और आज ग्राफ एकदम उंचाई पर आ गया है । कारण है दानव समाज के पिंजारों ने शारीरिक कपडों के साथ साथ मानसिक कपडों पर भी अटेक कर दिया है, धर्म पर अटेक कर दिया है । २५-३० साल से तन के कपडे कम होते गये, मानसिक कपडे फटने लगे और मानव के मानस में दबे शैतान बाहर निकलने लगे और समाज में अपनी शैतानी ताकत दिखाने लगे । जीन तनो से कपडे खिंचे गये उन अधनंगे तनो ने शैतानो को ओर उत्तेजित करने का काम किया है ।

कपडे बुनते बूनकरों की तरह हमारे पुरखों ने धर्म को भी अनेक तानेबाने से बुनकर बनाया है । ताने खडे भी है, बाने आडे भी है, तेढे भी है, मेढे भी है । इस में सच भी है, जुठ भी है, इस के पालन में किसी को सुख भी मिलता है, किसी को दुःख भी मिलता है । एक ही लाईन के खडे धागों से कपडा नही बन सकता, आडे टेढे धागों का उपयोग करना बूनकरों की मजबूरी है । कोरा कडवा सच मार खिलाता है, सच और मिठे जुठ के सहारे मानव अपना जीवन पूरा कर लेता है । धर्म की सच्ची कडवी बातों को मानव सहन नही कर सकता, साथ में जुठ की मिठी गोली जरूरी थी ।

तो क्या हुआ हमे धर्म का कपडा तार तार करके उतार फैंकने चाहिए? दुसरा कोइ संप्रदाय अपना लेना चाहिए? एक संप्रदाय तो बताओ, जीस की इमारत जुठी इंटों के सहारे नही खडी है । क्या उन इमारतों में रहनेवाले सब सुखी है?

जब बच्चा शरारत करता है तो मां उसे डराती है, मारने की धमकी देती है । बच्चा नही मानता है । मां जुठ बोलती हुई कहती है, देख, शरारत करोगे तो तुजे बावा ले जायेगा ।

ये धर्म की एबीसीडी का “ए” है ।

यहां मां की मारने की धमकी जैसी सच्ची और कडवी बात का बच्चा विद्रोह करता है और मां की बावा की उठा के ले जाने की जुठी बात पर बच्चे को विश्वास हो जाता है । मां जुठ बोली वो आदर्षवादियों के लिए जुठ हो सकता है लेकिन यथार्थवादियों के लिए नही । माताने अपने बच्चे के हित के लिए जुठ बोला । यही बडा सत्य है । सत्य लिखावट की लाईन से नही निकलता, बोले जा रहे वाक्यों से नही निकलता, पूरी बात के सार पर ही सत्य निकलता है । धर्म में जीतने सत्य की जरूरत पडती है उतने ही असत्य की जरूरत पडती है । दोनो का मिला जुला परिणाम जनता के हित में निकलता है तो ही वो धर्म है, वरना अधर्म है ।

इतनी सिधी सादी बात धर्म के पिंजारों को समज में नही आती है और धर्म को ही पिंज कर धर्म की बातों को तार तार करते रहते हैं ।

भुस्तर शास्त्रीयों को दक्षिण भारत के कोइ स्थान पर पोने दो लाख पूराने कुछ अवशेष मिले थे । उन्हों ने अंदाज लगाया था कि ये सब अवशेष मानव निर्मित है और वो स्थल कोइ पूजास्थल जैसा लगता है ।

हम नही जानते हजारों साल पहले सामान्य मानव का मानसिक विकास बच्चे के मानस से कितना अधिक रहा होगा । धर्म के संचालकों को उन्हें समजाने में कितनी कठिनाई हुई होगी । धर्म के सच्चे और कडवे नियमो के पालन के लिए कितना जुठा डर दिखाना पडा होगा, कितनी जुठी लालच देनी पडी होगी।

मुझे नही लगता की आज भी मानव का मानसिक विकास बच्चे के मानस से अधिक ज्यादा विकसित हो गया है । वरना धर्म की खोटी पिंजण नही करते, खोटी बहसबाजी नही करते । धर्म का हेतु समजने की कोशीश करते, धर्म का इतिहास जानने समजने की कोशीश करते, धर्म को क्यों तोडा फोडा जा रहा है, नये धर्म क्यों बन रहे हैं, धर्म को क्यों हटाया जा रहा है उन विषय पर सोचते ।

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