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वापस जंगल की और

भारत बाप है, मा नही
भारत बाप है, मा नही
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581846_237250383094497_1749925575_nआदमी जब जंगली था तो इन्सान वाले कोइ नियम कानून जानता नही था, बिना कपडे, कुदरत ने जैसे और जानवर पैदा किये ऐसे ही जी लेता था । उस की सिर्फ तीन ही जरूरियात थी, आहार, निद्रा और मैथुन । आहार के लिए फल, फुल पत्ते या दुसरे प्राणी को मार के खा लेता था, कभी कभी दुसरे आदमी को भी मार के खा लेता था । निद्रा के लिए जब निंद आये सो जाता था, रात या दिन का कोइ नियम नही था । मैथुन के लिए भी कोइ नियम नही था, कोइ रिस्ते नही थे तो किसी के भी साथ हो जाता था । आहार के लिए थोडी मेहनत पडती थी, कभी बडे शिकार के समय जान की भी बाजी लगा देनी पडती थी लेकिन फिर भी ज्यादा तकलिफ वाली बात नही थी जीतनी मैथुन के लिए थी । बलिष्ट आदमी १०-१० नारी को रिजर्व कर लेता था, दुसरा पास में फटका तो लडाई हो जाती थी । मैथुन से वंचित आदमी ताक में रहते थे कब मौका मिले, मौका मिलते ही बालात्कार कर देते था, आदमी आदमी में मारकाट हो जाती थी ।

कुछ आदमी को अकल आने के बाद, सोचने की शक्ति आई, आदमीने सोचा हम दूसरे प्राणी की तरह आम प्राणी नही हम खास है, ऐसे तो हमे नही जीना है । आदमी कुछ नियम सेट करने लगा । हजारों साल की मानव जीवन के सफर में आदमी की बुध्धि बढती रही, जीवन के नियम पूख्ता होते रहे, नियमों के पालन करवाने के लिए राजतंत्र भी विकसित कर लिया । राजा के नियम या कानून प्रजा को पालेने होते थे । लेकिन प्रजा नियम से बराबर नही चलती थी, गुनाहखोर आदमी को राक्षस समज कर मार दिया जाता था । राजा थक गये थे सजा दे दे कर । तभी धर्म को मदद में लाना पडा । आदमी राजा से नही डरता था पर भगवान या पाप के डर से नैतिक बन कर सीधा चलने लगा और समाजमें शांति हो गई । ५ – ७ % ढीढ आदमी सीधे नही चलते थे तो राजा उनको निपटा देता था । राजा का बहुत सा भार धर्म के कारण हल्का हो गया । सेक्स को नैतिकता के दायरे में लाकर शादी प्रथा बनाई, कुटुंब प्रथा बनी, एक टोटल मानव सभ्यता बन गई ।

एक बात तो माननी पडेगी, आदमी धर्म था तब तक ही सिधा चला है । जैसे जैसे शैतानों के पयत्न और उस की मिडिया के हर स्वरूप ( सिनेमा, टीवी, न्युज पेपर, साहित्य, संगीत, फेशन, वीआईपी के व्यवहार ) से नग्नता टपकने लगी ऐसे ऐसे क्राईम रेट भी बढता गया है । सरकार धर्म को हटाकर आदमी को खूद अपने कंट्रोलमें लेना चाहती है । सरकार भूल जाती है आदमी आखिर प्राणी ही है, धर्म के कपडे पहना दिये थे तो आधा अधुरा इन्सान था । अब इस कपडे को हटाकर आग से खेल रही है । बलात्कारों का माहोल बनाकर अपने कानून का हथियार सजा लिया है, जनता से ही उस हथियार की धार बनवा ली लेकिन भोली जनता को क्या पता था की वो ही हथियार खूद के या अपने सच्चे राहबरों के लगे पर ही पडनेवाले हैं ।

हां, ये चिलिये और उन के प्यादे ये तो करनेवाले ही थे । बुंद बुंद से तालाब भरता है, ऐसे ही उस के उलट एक एक आदमी की गरदन कटने से धरती डिपोप्युलेट होती जायेगी ।
युएन का एजन्डा नंबर२१ यही तो कहता है ।

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