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बेटी से माँ तक का सफर एक चंचल अल्हड़ युवती से लेकर एक जिम्मेदार, समझदार माँ तक का सफर है। इस सफर में बेटी सीधे माँ नहीं बनती है। इस सफर को तय करने के रास्ते में कई पड़ाव आते हैं। कुछ खट्टे-मीठे अनुभव, कुछ शारीरिक मानसिक और सामाजिक कई तरह के बदलाव आते हैं|
बेटी माँ की लाडली, पिता की परी, किसी चीज का डर नहीं, किसी तरह की परेशानी या चिंता नहीं क्योंकि माँ पापा हैं ना सब देखने के लिए। बेटी सबकी लाड़ली, जो चाहे वो बात मनवा ले, पसंद ना आने पर खाना ना खाये, माँ मान मनुहार करके खिलाए, ना मानने पर फिर से पसंद का दूसरा खाना बना कर लाए। घर के छोटे-मोटे काम कर के उस का एहसान ये है एक बेटी की जिंदगी। माँ पापा कभी कुछ नहीं कहते, सिर्फ मुस्करा देते जैसे शायद जानते हो कि यहां से आगे का रास्ता हमें खुद ही तय करना है।
पहली बार बच्चे को देखने के बाद सारी परेशानियों को भूल जाना शायद इसी को माँ कहते हैं। अब सारा समय बच्चे के लिए ही है| उसका ध्यान रखना, उसकी परवरिश में ही पूरा समय निकल जाना| अब तो जैसे अपना कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया, सिर्फ माँ का ही अस्तित्व रह जाता है। बच्चे की छोटी-छोटी खुशी में खुश होना, पूरा समय उसके बारे में उसके भविष्य के बारे सोचने में निकल जाता है| अब समझ में आता है कि माँ क्या होती है। अब मैं माँ के दिल को समझ सकती हुँ। आज शादी के इतने वर्ष बाद माँ पापा का प्यार समझ में आने लगा है। आज मन करता है जल्दी से मम्मी-पापा के पास चले जाऊँ, उनका सुख-दुख बाटूँ, उनके साथ समय व्यतीत करुँ| अपनी गलतियों के लिए क्षमा माँग लूँ जो मैने पहले की थी। मुझे पता है उन्हें वे सब अब याद भी नहीं होगा| उन्हें तो मेरी अच्छाइयां ही याद रहती हैं। मन करता है माँ की गोद में सिर रख कर एक बेफिक्र नींद सो जाऊँ| क्योंकि माता पिता के बाद किसी से भी वैसा निस्वार्थ प्यार नहीं मिलता। क्योंकि माता पिता दोबारा नहीं मिलते हैं। मेरा बेटी से माँ तक के सफर ने मुझे काफी कुछ सीखाया है।
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