गहरे पानी पैठ
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रात
एक सपना देखा
सत्य इतना
कि संदेह न था
कि स्वप्न था
सब कुछ –
भार मुक्त
आभार मुक्त
सुखद इतना
कि आह्लाद युक्त .
वह,
जो मैं –
सम्राट हुआ था ,
ख़ुशी मिली थी
सच्ची थी ,
फिर भी
कहना पड़ा
“स्वप्न था “.
सब कुछ –
सत्य इतना
कि छोड़े न छूटे
प्रिय इतना
कि छोड़ते –
ह्रदय टूटे .
फिर भी
कहना पड़ा
“स्वप्न था ”
काश न टूटता !
.
जहाँ
अपेक्षाओं कीं
आंधियां चलतीं हों
जहाँ
जिंदगी –
स्वयं ,
स्वयं को छलती हो
वस्तुओं के साथ
हाट भी –
बिकती हो
वहां
मन मेरे !
सत्य को बचानें के लिए
ह्रदय पाषाड़ के
टूटें तो टूटें
अँधेरे –
कलुष के
रूठें तो रूठें
आने वाले –
हर क्षण का
धरती के-
कण कण का
तेरे हाथों
भरपूर श्रृंगार हो
अंतस पर
तेरा –
इतना ही अधिकार हो !
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