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स्वास्थ्य सेवाएं और खाद्य सुरछा

Hindustani
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स्वास्थ्य सेवाएं र खाद्य सुरछा

पुराने समय में स्वास्थ्य और शिक्षा को सेवा के साथ साथ पूण्य का कार्य भी माना जाता था। इसके लिए पैसे नहीं लिए जाते थे। कोई भी गुरुकुल के शिक्षक फीस नहीं लेता थे, गुरुदाक्षिना में गुरु शिष्य के ज्ञान और छमता की परख के लिए कोई कार्य संपन्न करने के लिए देते थे। यही हाल इलाज करने वाले वैद्यों का भी था। किसी भी इलाज के लिए धन नहीं लेते थे। आज भी गाँव में जो लोग पारंपरिक तरीकों से चोट ठीक करने की विशेषज्ञता रखते हैं जैसे टूटी हड्डी जोड़ने वाले, मोच इत्यदि ठीक करने वाले वे आज के समय में भी पैसे स्वीकार नहीं करते हैं। वो मुफ्त में ये सेवा लोगों को प्रदान करते हैं। किन्तु आज शिछा और स्वास्थ्य दोनों कहने को सेवाएं हैं परन्तु ये केवल व्यापार बनकर रह गए हैं। केवल सेवा का रूप सरकारी स्तर पर ही दिखाई देता है जहाँ स्कूलों की फीस कम और अस्पतालों में कम खर्च में इलाज हो जाता है।

सभी नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएं बढ़िया से बढ़िया स्तर की मिलनी चाहिए यह सभी का हक़ है।भारत में स्वास्थ्य सेवाएं ज्यादातर सरकारी अस्पतालों के माध्यम से उपलब्ध है। प्राइवेट नर्सिंग होम या प्राइवेट अस्पतालों की उपलब्धता शहरों में ही ज्यादा है। चुकि यह निजी छेत्र के होते है तो इनका एक मात्र उद्देश्य पैसा कमाना रहता है। सामान्य लोग जिनकी आमदनी कम है, इनके खर्च को बर्दाश्त नहीं कर सकते. बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं देने के दो तरीके हो सकते है। एक तो यह की सरकार सभी नागरिकों का स्वास्थ्य बीमा करवा दे और दूसरा यह कि सरकारी अस्पतालों की गुणवत्ता सुधार कर उसकी पहुँच ज्यादा से ज्यादा बढाई जाय ताकि ज्यादा से ज्यादा जरूरतमंद लोग इनका लाभ ले सकें।

यदि सरकार सभी नागरिकों का स्वास्थ्य बीमा करवा देती है तो उसका नाजायज फ़ायदा ही उठाया जायेगा। आज भारत में ज्यादातर डॉक्टर केवल पैसा कमाने के चक्कर में लगे रहते हैं। विशेषकर जब वो अपने खुद का नर्सिंग होम अथवा अस्पताल बनवाए होते हैं। ऐसी स्थिति में वो मरीजों की बेवजह की जांचे कराते है जिससे अस्पताल की आमदनी बढे। मरीज को ठीक करना उनकी दूसरे नंबर की प्राथमिकता होती है वो भी इस लिए जिससे वो दिखा सकें की वहां मरीज के ठीक होने की संभावना दुसरे अस्पतालों की तुलना में ज्यादा है। यदि डॉक्टर या प्राइवेट हॉस्पिटल यह जान जाते हैं कि मरीज का स्वास्थ्य बीमा है तो फिर जितनी ज्यादा से ज्यादा जांचे हो सकती सभी करवा लेते हैं। चाहे उनकी जरूरत हो या न हो। अतः बीमा होने पर इसका दुरूपयोग ज्यादा होगा।

शुक्र है सरकारी अस्पतालों में कम दाम पर जांच और ज्यादातर दवाइयां मुफ्त में मिल जाती हैं। अतः जो पैसा सरकार को लोगों के लिए स्वास्थ्य बीमा करने में लगाना हो उससे सरकारी अस्पतालों की सेवाओं में सुधार किया जा सकता है। अच्छे से अच्छे सरकारी अस्पतालों में आज कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है की अनजान मरीज की कोई सहायता करे। यदि कोई ऐसा गंभीर मरीज आ जाता है किसके साथ कोई नहीं होता तो उसे स्ट्रेचर तक उपलब्ध नहीं होता। सरकार ने एम्बुलेंस की व्यवस्था तो कर दी है किन्तु सामान्य मरीजों के लिए स्ट्रेचर वैसे ही उपलब्ध होने चाहिए जैसे किसी शोपिंग माल में जाने पर सामान खरीदने के लिए ट्राली बाहर ही रहती रहती हैं।

अस्पतालों में सहयोगी स्टाफ भी नियुक्त करना चाहिए हो जो मरीजों की सहायता के लिए हमेशा उपलब्ध रहे। स्वास्थ्य और शिछा दोनों पूण्य और सेवा के कार्य हैं यह अहसास डॉक्टर् और सहयोगी स्टाफ दोनों को होनी चाहिए। यदि इसमें कोई सुधार किया जा सकता है तो वह कि अस्पताल में तैनात सेवा या सहयोगी स्टाफ का नाम के साथ उसका कर्तव्य किसी बोर्ड में लिखा होना चाहिए ताकि जिम्मेदारी सुनिश्चित हो सके। ज्यादातर वार्डबॉय या और भी स्टाफ अन्य कामों में लगे रहते है जबकि मरीजों की सेवा उनका प्रमुख कर्तव्य होता है।

इस समस्या को सुलझाया जा सकता है यदि सहयोगी स्टाफ की भली भांति ट्रेंनिंग कराइ जाय।जिससे उनके अन्दर सेवा भाव उत्त्पन्न हो सके। मैंने पी जी आई, लखनऊ के कुछ विभागों को देखा है जहाँ पर मरीजों के साथ बहुत अच्चा व्यवहार होता है और लगभग सारा सहयोगी स्टाफ अपनी ड्यूटी बखूबी निभाता है। परन्तु एक बात यह जरूर है कि पी जी आई में इलाज महगा है और अन्य सरकारी अस्पतालों में इलाज सस्ता है।

फ़िलहाल जो भी है सरकारी अस्पतालों में भी सहयोगी स्टाफ की संख्या भी बढाई जानी चाहिय और उनकी बेहतर से बेहतर ट्रेनिंग भी समय समय पर दी जाय।

बेहतर इलाज हेतु गरीब परिवारों के लिए तत्काल कोई वित्तीय राहत की भी व्यवस्था हो।सामान्यतया यदि मरीज के साथ कोई नहीं होता या वह गरीब होता है तो पैसे की उपलब्धता के बिना इलाज भी बाधित होता है। ऐसे में कोई तत्काल वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध होनी चाहिए जिससे पैसे की जगह इलाज को प्राथमिकता दी जा सके।

गरीबों का इलाज सुनिश्चित करना एक बहुत बड़ी चुनौती है। परन्तु बहुत ज्यादा गरीब लोगों की ज्यादातर बीमारियाँ, खाने की कम उपलब्धता के कारण भी होता है। अतः बीमारियों का इलाज केवल दवा ही नहीं कर सकती। यदि कोई मरीज खाने बिना बीमार हो गया और डॉक्टर ने उसे खाने पीने की सलाह दी परन्तु पर्याप्त खाना न होने की वजह से ऐसे लोग ज्यादा मुसीबतों का सामना करते हैं।

यदि देश को मूलभूत रूप से सशक्त करना है तो जरूरतमंद लोगों तक पर्याप्त खाने की सुविधा मुहैया करना तथा इलाज के बेहतर संसाधन उपलब्ध करना जरूरी है। यदि किसी सामान्य परिवार के किसी सदस्य पर कोई गंभीर बीमारी आ जाये तो उसके इलाज में घर और सारी संपत्ति तक बिक जाते हैं। अतः स्वास्थ बीमा न करके सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे कि अस्पतालों में ही गंभीर बिमारियों का इलाज कम से कम खर्च पर हो पाए। अस्पतालों के जनरल वार्डों में खाने की व्यवस्था कम से कम दाम पर जैसे की दो या तीन रूपए पर की जा सकती है। यदि अस्पतालों में मरीज पंजीकरण एक रुपये पर होता है तो खाना भी एक या दो रूपए में दिया जा सकता है।

अपना देश कृषि प्रधान देश है, परन्तु यहं बहुत बड़ी जनसँख्या भूख और कुपोषण से प्रभावित है। गाँव के लगभग चालीस प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। यह हमारे देश की छवि पर एक कलंक है। भारत में किसी व्यक्ति को कम से कम खाने की चिंता नहीं होनी चाहिय। सरकार को इस बात को गंभीरता से लेना चाहिए।

तमिलनाडू की दिवंगत मुख्यमंत्री ने जिस प्रकार से अम्मा कैंटीन की व्यवस्था की थी मेरे विचार से ऐसी व्यस्था काफी व्यापक रूप से पूरे देश में होनी चाहिए। अम्मा कैंटीन में पांच रुपये में खाना उपलब्ध है यही व्यवस्था देश के हर गाँव में होनी चाहिए और शहर में हर पांच सौ मीटर की दूरी पर होनी चाहिए। चाहे तो सरकार इसकी फ्रेंचाइजी भी दे सकती है। सरकार को राशन की दुकाने बेहद कम या ख़त्म कर देनी चाहिए। ऐसी कैंटीनो का खाना दो से तीन रुपये प्रति प्लेट में उपलब्ध कराया जाय खाद्य सुरछा के लिए लगभग एक लाख बतीस हजार करोड़ रुपये का बजट है, यदि केवल इसी पैसे से सरकारी कैंटीन पूरे देश में खोल दी जाय तो इस आवंटित एक लाख बतीस हजार करोड़ रुपये के बजट में से कुछ पैसा बच भी जायेगा। परन्तु सभी कैंटीन में सी सी टी वी कैमरे जरूर होने चाहिए जिससे की उनकी निगरानी भली भांति की जा सके. नहीं तो उनका भी हाल राशन की दुकानों की तरह ही हो जायेगा। यदि ऐसा कदम उठाया जाता है तो किसी को भी खाने की परेशानी नहीं होगी, चाहे वह अस्पतालों में गरीब मरीज हों अथवा कहीं अन्य जगहों पर कोई गरिब व्यक्ति।

यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके लिए बहुत बड़े धन की आवश्यकता हो जिसका इंतजाम नहीं हो सकता अथवा मुश्किल हैं। पहले से ही सरकार बहुत सारी योजनायें चला रही है जिसके लिए बहुत सारा धन आवंटित है और उनका उद्देश्य भी यही है कि सभी नागरिकों को पर्याप्त भोजन और बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ मिल पाएं। बस जरूरत है उसके स्वरुप में परिवर्तन की। अतः मानव सेवा के लिए यह कार्य जल्द से जल्द कर देना चाहिए। यदि सरकार यूनिवर्सल बेसिक इनकम लागू कर दे तो स्वास्थ्य सेवाओं को छोड कर, खाद्य सुरछा की चिंता करने की आवश्यकता नहीं होगी, क्यूंकि इससे लगभग चालीस करोड़ भारतियों को नौ सौ रुपये प्रति महीने मिल जायेंगे जिससे उनकी खाने की जरूरतें पूरी हो जायेंगी।

आशय यह है कि देश में किसी भी व्यक्ति को कम से कम खाने और स्वास्थ्य की सुविधा से वंचित नहीं रहना चाहिए। इसके लिए सरकार को बेहतर से बेहतर विकल्प तलासने चाहिए और उन्हें तत्काल प्रभाव से लागू भी कर देना चाहिए।

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