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“भाड़ में जाओ”

अंतर्व्यथा
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final

भीड़ में अक्सर आदमी अपनी पहचान खो देता है. लेकिन ऐसा भी क्या था उस शहर के बाशिंदों में कि सब के सब जानवर ही बन गए, वह गिड़गिडाती रही चीखती रही चिल्लाती रही, लेकिन हर कोई बस उसकी आबरू को तार-तार करने में लगा रहा, भगवान न करे अगर उस जगह पर उनकी खुद की बहन होती तो  क्या तब भी वो ऐसी ही हरकत करते, तब क्या खून नहीं खौल जाता उनका? उन्हें एक बार भी ये ख्याल नहीं आया कि आखिर वो भी किसी की बेटी या बहन .

खबर को पढ़कर सिर्फ यही संशय रहा था की क्या वाकई सारे गुनाहगार पकडे भी जायेंगे या नहीं? फिर मन खिन्न हो गया क्या ऐसा कभी हुआ है… बड़े घर के रईस तो सिर्फ मामले के शांत होने तक ही खौफजदा रहेंगे, बाकी सूरतेहाल यहाँ बताने की जरुरत ही नहीं है.

दिल में कहीं न कहीं ये उम्मीद थी की इस मामले में शोहदों पर कड़ी कार्रर्वाई जरुर होगी, लेकिन व्यवस्था की विडम्बना सन्न कर देती है, अब उल्टा इल्जाम तो उस पत्रकार पर ही लगा दिया गया जो इसकी वीडियो रिकार्डिंग कर रहा था. मीडिया पर बिकी हुई होने के आरोप कोई नए नहीं हैं लेकिन इस तरह इस मामले की संगीनता का ऐसा पटाक्षेप मनोस्थिति को विकृत बना देता है. पत्रकार पर आरोप लगा है की उसने भीड़ को उकसाने का काम किया, तो प्रशासन खुद अपराधी प्रवृत्ति के ऐसे लोगों को क्यूँ नहीं उकसाता की वो ऐसे जघन्य काम न करें. तोहमत की बात काफी हद तक सही है मगर ये कहाँ से लाजिमी है की ऐसी लोमहर्षक घटना के दोषियों को सजा देने के बजाये आप उसे सामने लाने वाले की ही गर्दन दबोच लें.

अब आप मुझे निराशावादी कहें या कुछ और लेकिन इस लड़की को पूरी तरह न्याय मिलेगा या नहीं इस बात का कोई भरोसा अब नहीं रह गया. लचर कानून व्यवस्था पर कहने तो अब बस एक ही शब्द निकलता है, “भाड़ में जाओ”…

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