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बिहार में कौन बनेगा मुख्यमंत्री? कुर्सी और राज्य की बागडोर किस नेता के हाथों में थमाई जाएगी? छः चरण के चुनाव में किस के साथ होगी बिहार की जनता और जीत का ऊंट किस करवट बैठेगा इस पर पूरे देश के साथ बिहार की जनता की नजरें टिकी हैं.
बिहार में मुकाबला त्रिकोणीय होने की उम्मीद है. लालू, नीतीश और कांग्रेस के बीच होने वाला यह मुकाबला बेहद रोमांचक होने के पूरे-पूरे आसार हैं. गठजोड़, पैसे और बल के साथ जीत की हर तरकीब इस्तेमाल की जा रही है. जनता के दिलों में जगह बनाने के लिए कोई उनका मसीहा बन रहा है तो कोई रक्षक. लेकिन विकास और प्रगति के नाम पर हमेशा धोखा पाने वाली बिहार की जनता अब समझदार हो चुकी है. जाति फैक्टर होने के बाद भी अब लोगों में थोड़ी सी जागरुकता भी है जो तख्ता पलट के लिए काफी कारगर सिद्ध होने वाली है.
पर सवाल अहम है कि आखिर कुर्सी पर बैठेगा कौन? लालू प्रसाद इस बार रामविलास पासवान के साथ गठजोड़ कर अपनी वापसी करने को बिलकुल आतुर दिख रहे हैं. उनकी आतुरता गठजोड़ से ही साफ हो जाती है. जिस पासवान के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा था उन्होंने उसके ही साथ गठजोड़ कर लिया. यादवों के साथ दलितों को मिला लालू एक बार फिर बिहार की राजनीति में वापस आना चाहते हैं. 2005 के चुनावों में लालू की सरकार गिरने का एक अहम कारण लॉ एंड ऑर्डर का बुरी तरह फेल होना और विकास की गाड़ी पीछे होना माना जा रहा था. वैसे लालू की वापसी के कयास इसलिए भी लगाए जा रहे हैं क्योंकि जिस तरह से नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ अपने मेल बढाए हैं उससे जाति फैक्टर में उलझी बिहार की जनता भ्रमित है. इसी भ्रम के साथ मोदी मामले को उछाल लालू मौका देख चौका मारने के फिराक में हैं.
लेकिन इन सब के बीच कांग्रेस की भूमिका भी देखने योग्य है. कभी बिहार की सत्ता पर एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस अपना पुराना जनाधार वापस पाने के लिए बेकरार है. सोनिया गांधी के साथ राहुल गांधी ने चुनाव प्रचारों में आम जनता के दिलों में अपनी जगह बना कर कुछ आस जरुर जगाई है लेकिन कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक्कत है नाम. बिहार में लालू और नीतीश कुमार के बाद ऐसे बहुत ही कम लोग हैं जिनका सिक्का राजनीति में चलता है और फिर कांग्रेस के पास तो एक नाम भी नहीं जो इन दोनों के सामने टिके भी. ऐसे में मान भी लें कि कांग्रेस जीत जाती है तो मुख्यमंत्री पद के लिए कोई ऐसा चेहरा जनता की नजर में नहीं जो कुर्सी के साथ उनके दिलों में भी बैठ पाए.
बरसों से पिछड़े बिहार को ऐसे विकास पुरुष की जरुरत थी जो बिहार में विकास की रुकी हुई गाड़ी को धक्का दे सके और नीतीश कुमार ने वही काम किया. उनके कार्यकाल में बिहार में वह सभी परिवर्तन आए जिनकी इस प्रदेश को बहुत आवश्यकता थी. न सिर्फ बरसों से रुके पुल और सड़कें बनाए गए जिन्हें बनाने से कॉंट्रैक्टर भी डरते थे बल्कि राज्य में लॉ एंड ऑर्डर में भी सुधार आया. जो सबसे बड़ा काम नीतीश सरकार ने किया वह था राज्य में शिक्षा को एक नया आयाम देकर. बरसों से जिन स्कूलों में शिक्षक नहीं थे वहां शिक्षकों की भर्ती करवाई और जहां स्कूल नहीं थे वहां स्कूल बना दिए और यह कारनामा कोई कागजी बयान नहीं बल्कि जमीनी हकीकत है. बिहार में इस बदलाव को न सिर्फ देखने वालों ने महसूस किया बल्कि बदलाव को उन लोगों ने भी महसूस किया जिन्हें पहले पिछड़ा कहा जाता था.
हालांकि बिहार में सब कुछ ठीक हो गया है ऐसा कहना अभी जल्दबाजी ही होगी, लेकिन बीजेपी के साथ सत्ता में भागीदारी को नजरअंदाज कर दिया जाए तो उनकी सेक्युलर छवि पर उंगली नहीं उठाई जा सकती है. इस लिहाज से देखें तो नीतीश कुमार का पलड़ा हर तरफ से भारी दिखाई देता है. उन्हें मात देने के लिए कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, लोक जनशक्ति पार्टी गठबंधन को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी.
बिहार की जनता विकास चाहती है और अगर वह सच में निष्पक्ष है तो इस बार हम फिर से नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद पर आसीन होते हुए देख सकते हैं. लालू की वापसी होगी या नीतीश दुबारा आएंगे या फिर कांग्रेस अपना साम्राज्य वापस ला पाएगी यह तो समय ही बताएगा लेकिन जहां तक समीकरण और जनता के दिल की आवाज है लगता तो यही है कि नीतीश अपना डंका बजाकर ही दम लेंगे.
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