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बिहार में कांग्रेस के आलाकमान ने सारी युद्ध रणनीति अपने हाथ में ले रखी है. राहुल गांधी ने स्वयं टिकट वितरण में सक्रिय भूमिका निभाई और तमाम बाहुबलियों को टिकट दे के ये साबित कर दिया कि वे भी चुनाव की पंरपराओं को निभाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे. उत्तर प्रदेश में राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ने तथाकथित चमत्कार करने के बाद वैसा ही चमत्कार बिहार में भी करने की सोची है लेकिन क्या ये वाकई चमत्कार माना जाए. देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में कोई चमत्कार नहीं हुआ. यह मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का असर था. जिस तरह से सोशल इंजीनियरिंग की वजह से मायावती को ब्राह्मणों और मुसलमानों का वोट मिला उसी तरह से एक समय के बाद उन्हीं लोगों ने जता दिया कि यदि सरकार ने उनकी आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया तो वे कहीं और भी जा सकते हैं. कोई अन्य सही विकल्प समझ में ना आने के कारण वे कांग्रेस में चले गए और कांग्रेस के सांसदों की संख्या बढ़ गई.
कुछ वैसे ही बिहार में भी कांग्रेस अपने प्रदर्शन के आधार पर आगे नहीं बढ़ रही है बल्कि वह सांयोगिक परिस्थितियों का लाभ उठाने का प्रयास कर रही है. इस बार यदि कांग्रेस को वोट मिलते हैं तो इसलिए क्योंकि अब लोगों को कांग्रेस को आज़माए हुए बहुत दिन हो गए. जो मतदाता लालू से नाराज़ हैं और नीतीश से भी ख़ुश नहीं हैं वो कांग्रेस के साथ जा सकते हैं. लेकिन ये संख्या कितनी होगी और इससे कांग्रेस को सीटों के रूप में कितना फायदा होगा ये तो वक्त ही बताएगा.
आज कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी समस्या ये है कि उसके पास बिहार में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसे वह लालू, नीतीश कुमार और रामविलास के सामने खड़ा कर सके. बिहार में भी सिर्फ सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही हैं जो सभी कांग्रेसियों को एकमात्र नेता दिखते हैं.
स्वभावतः ये उसकी सबसे बड़ी विडंबना भी है कि वहॉ खानदान के अलावा किसी अन्य व्यक्तित्व को बड़ा होने ही नहीं दिया जाता है. यदि किसी ने बड़ा होने की हिमाकत की भी तो उसे हटा देने में देर नहीं लगती है. अब आप ही सोचिए कि क्या इससे कांग्रेस बिहार में एक बड़ी ताकत बन के उभर पाएगी.
बिहार विधानसभा चुनाव 2010
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