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बंद हुई क़ानूनी खिड़की,गेंद संसद के पाले में

Bimal Raturi
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मुझे ख़ुशी हुई थी चार साल पहले कि चाहे भले ही समाज हमें अपने बीच का मानता हो न मानता हो पर दिल्ली हाई कोर्ट से समलैंगिक संबंधों को जो मान्यता मिली थी, ये हमारी पहली जीत थी| इस से समलैंगिकों के अधिकारों पर बात करने का और उन के लिए लड़ने का रास्ता खुला था और सामाजिक अपराधियों की तरह छुप छुप के ज़िन्दगी जी रहे लोगों को नयी ज़िन्दगी मिली थी| वो अब खुद को समलैंगिक कहलाने में शर्म नहीं कर रहे थे, पर पिछले 11 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले को क़ानूनी तौर पर ग़लत बताते हुए समलैंगिकों के बीच सहमति से बनाए गए यौन संबंध को ग़ैर-क़ानूनी क़रार दिया था और अचानक हम हम फिर अपराधी हो गये| फिर आज उच्चतम न्यायालय ने धारा 377 पर लगाई गई पुनर्विचार याचिका को ख़ारिज कर उम्मीद की खिड़की भी बंद कर दी| ये कहना है दिल्ली में रहने वाले पेशे से इंजिनियर राज़ (बदला हुआ नाम) का |
केंद्र सरकार और समलैंगिक अधिकारों के समर्थकों ने धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ पुनर्विचार याचिका दायर की थी, इस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने फैसले को सही ठहराते हुए समलैंगिक संबंधों को गैर क़ानूनी करार दिया और याचिका ख़ारिज कर दी | अंगेजों के जमाने के इस 153 साल पुराने कानून पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद की इच्छा पर इस में संशोधन किया जा सकता है| सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से जहाँ समलैंगिक अधिकारों पर कार्य कर रहे लोगों में बड़ी निराशा छाई है,वहीँ कई धार्मिक संगठनों ने इस फैसले का स्वागत किया है और इसे नैतिक मूल्यों की जीत बताया है | संसद इस मामले को टाले रखेगी क्यूंकि धार्मिक संगठनों जो नाराज़ करने की ताकत और हिम्मत उस में नहीं है क्यूंकि उस से वोट सीधे सीधे जुड़े हैं|
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इस मसले पर जो मुख्य बात सामने आई है वो अधिकारों की है| दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले के बाद कई लोगों ने खुल कर स्वीकार किया था कि वो समलैंगिक हैं और अचानक इस फैसले के बाद उन्हें अपराधी की तरह देखा जायेगा| कोई भी व्यक्ति चार दीवारों के भीतर क्या करता है ? उस की निजी ज़िन्दगी में क्या पसंद न पसंद हैं उस पर कोई भी क़ानूनी फैसला क्यूँ? अगर अगर हम इन्हें अल्पसंख्यक भी मान लें तब भी भारतीय संविधान सब को साथ ले कर चलने की बात करता है ऐसे में कैसे ये मुख्य धारा में शामिल हो पाएंगे ये अभी भी एक बड़ा सवाल है|
समलैंगिक दुनिया के हर समाज में हर दौर में मौजूद रहे हैं, कई देशों में ये संम्बंध वैध हैं| दुनिया भर में इस विषय में चर्चाएँ चल रहे हैं और प्रगतिवादी समाज में इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता की तरह देखा गया है, हमेशा की तरह सारी बड़ी पार्टियों की तरफ से केवल खुसरपुसर ही हुई है और कोर्ट का फैसला ही सर्वोपरी मान कर चुप्पी साधी हुई है|
दो समलैंगिकों के लिए बीच का रिश्ता उन की पसंद नापसंद और आपसी रजामंदी से बनता है, इस से किसी के अधिकारों का हनन होता है, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला समानता के अधिकार पर कुठाराघात है और “समलैंगिक” शब्द की वर्जना को आगे बढ़ाने के लिए उठाया गया एक कदम है |
और बचा है सिर्फ एक सवाल कि क्या संसद इस मुद्दे पर कोई पहल करेगा???

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