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बसंत का मौसम भी खूब निराला है, जिसमें हर एक के मन में खुमारी, छाई रहती है | सरसों के खेत पीली धानी चुनरिया ओढ़े बहुत सुन्दर लगते हैं | कहीं दूर से अमराइयों से कूकती हुई कोयल की कूक कानों में रस घोलकर और आमों के बौर की भीनी सुगंध किसी को भी मदमस्त कर देती है,,,,कोई विरहणी मदन के पांच बाणो से आहत होकर अपने प्रियतम को सहसा अधीर होकर पुकारने लगाती है| कभी पपीहा पीहू-पीहू पुकारकर उसके दर्द को और भी बढ़ा देता है ऐसे में विरहणी भी अधीर होकर विरह के गीत गा-गा कर अपने विरह को भूल जाने का असफल प्रयास करती है| विरह तो विरह ही है, उसका प्रियतम आ जाये तो सारे विरह के ग़म रफै कर ले| परन्तु आजकल तो वैलेंटाइन डे का विरह सब और छाया रहता है,एक सप्ताह पूर्व ही तथाकथित प्रेम और प्यार के व्यापारी अपनी दुकाने सजा लेते हैं| यह सब पाश्चात्य का ढोंग ही है| शरीर से शरीर का आकर्षण होता है और एक दो दिन में यह बुखार सर से उतरकर कर धरातल पर ल देता है | भारतीय परम्परा तो इसके बिलकुल विपरीत है, यहां व्यापार नहीं प्रेम तो आत्म बलिदान और समर्पण मांगता है | यहाँ किसी अंग विशेष का आकर्षण नहीं वल्कि समष्टि की पूजा होती है| मदनोत्सव के अनुयायी इसी परंपरा का निर्वहन करते हैं| बसंत पंचमी भी उसी पर्व का नाम है| इसे बाद के लोगो ने सरस्वती जी की पूजा से जोड़ दिया है| यह भी बहुत सुन्दर पर्व है, मेधा का विकास होवे यही इस पर्व का उद्देश्य होता है | साथ ही किसी को अपने प्रिया से ना विछुडना पड़े यह भी इसमें निहित होता है | इसी कड़ी में की विरहन के शब्द सुनिए”छाई खुमारी बसंत अजय मेरे कांत सुनो कामदवन आयो! मो विरहन को आज सखी अति मन हुलसायो | पंचम सुर आलाप सखी को मिलाप कोकिला शोर मचायो |पतिप्रजा के हेत सखी समेत वहां सखियाँ दाल आयो |पायी अजय को संग भरी उमंग सखी को हिय उमगायो ऋतुराज सुनो महाराज कोकिला वचन सुनायो|चन्द्रसखी गयी हार सुनो भरतार इन्द्र को जाल बिछाओ |||||”” ” मई ऋतू बसंत की मारी पीया मोसे नयन मिलाओ | अंक भरो सधवा को सब संताप मिटाओ | एमी अनंग की मारी कछु तरस दिखाओ | पीर हरो दुखिया की सब संताप मिटाओ||||” आइए! बसंत पंचमी मनाये तो पर भारतीयता के साथ \\\\ डाक्टर बी.के. चन्द्रसखी…जय हिन्द
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