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अब उदारता नही आक्रामकता की नीति

यात्रा
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आखिरकार नाउम्मीदों का वह अंधेरा जिसने पूरे देश को निराशा के गर्त मे डाल दिया था, खत्म हुआ । एकबारगी फिर जयकारों से पूरा देश गूंज रहा है । बार बार के आतंकी हमलों और उसके बाद भारत की कमजोर् राजनीतिक प्रतिकिया से ऊबी देश की जनता को मानो एक नया टानिक मिल गया हो । दर-असल आतंकी हमलों मे शहीद हो रहे अपने सैनिकों के कारण और कुछ न कर पाने की कुंठा ने उसे  देश के राजनैतिक नेतृत्व से कोई उम्मीद ही नही बची थी । लेकिन मोदी सरकार के एक साहसिक निर्णय से अब पूरा देश गर्व महसूस करने लगा है । बेशक हमले मे चंद आतंकवादियों की हत्या से यह समस्या पूरी तरह खत्म नही होने वाली लेकिन इसका एक सांकेतिक महत्व तो है कि भारत अब बर्दाश्त नही करेगा । उसे जरूरत पडी तो वह एल.ओ.सी पार करके भी आतंक का खात्मा करने को तैयार है ।
वैसे इस हमले के बाद एक बार फिर पाकिस्तान के साथ सीधे टकराव की हालात बन रहे हैं । लेकिन ऐसा पहली बार भी नही है । दर-असल भारत और पाकिस्तान का जन्म ही विवाद और झगडे के गर्भ से हुआ । जिन्ना ने रातों रात अपने विचार बदल कर धार्मिक आधार पर अलग राष्ट्र के रूप मे पाकिस्तान की मांग न की होती तो आज दुनिया के मानचित्र पर पाकिस्तान नाम का राष्ट्र न होता । जब दो राष्ट्रो की जन्मकुंडली पर शनिग्रह हो तो उनके बीच नोंक झोक का होना स्वाभाविक ही है । 1947 से ऐसा ही हो रहा है । लेकिन यहां गौरतलब यह है कि दोनो राष्ट्रों के चरित्र, सोच और नीतियों में कोई समानता नही है ।
भारत अपने जन्म से ही एक उदार सोच वाले राष्ट्र के रूप में विकसित हुआ । अगर थोडा पीछे देखें तो विभाजन के समय होने वाले  साम्प्रदायिक हिंसा के संदर्भ में गांधी जी की उदार भूमिका पर आज भी सवाल उठाये जाते हैं । लेकिन वहीं सीमा पार से ऐसी किसी उदार सोच के स्वर नहीं सुनाई दिये थे ।
इसके बाद तो पाकिस्तान और भारत का इतिहास युध्द और राजनीतिक विवादों का ही इतिहास रहा है । अभी तक दोनो देशों की सेनाएं चार बार रणभूमि में आमने सामने हो चुकी हैं । लेकिन इन युध्दों का और उस संदर्भ में हुए राजनीतिक निर्णयों का यदि बारीकी से पोस्टमार्टम करें तो यह बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि भारत ने यहां भी अपनी उदार सोच का खामियाजा भुगता है ।
आजादी के उपरांत जन्म लेते ही पाकिस्तान ने 22 अक्टूबर 1947 को कश्मीर पर कबिलाईयों के साथ मिल कर हमला किया । लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर दोनो देश युध्द विराम के लिए राजी हो गये । लेकिन चूंकि उस समय कश्मीर एक स्वतंत्र रियासत थी तथा तत्कालिन राजा हरि सिंह ने उसका विलय भारत के साथ स्वीकार नहीं किया था अत: जब तक भारतीय सेना कश्मीर बचाने के लिए पहुंचती, पाकिस्तान एक हिस्से में अपना कब्जा जमा चुका था । बाद मे विलय होने के बाद भी भारत ने पाक अधिकृत कश्मीर के सवाल पर कभी शोर नहीं मचाया ।
भारत के इस नरम रूख को भांपते हुए उसने 1965 में फिर हमला किया । इस बार भी झगडा कश्मीर को लेकर ही था । अप्रैल 1965 से लेकर सिंतबर 1965 के बीच चलने वाले इस युध्द का अंत भी विश्व बिरादरी के दवाब में युध्द विराम की घोषणा करने से हुई । इसी समय ताशकंद समझौता भी हुआ । इस समझौते के लिए तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्र्पति अयूब खान तुरंत राजी हो गये । दर-असल युध्द मे अपनी खस्ता हालत से वह परिचित थे । उन्हें डर था कि यदि यह समझौता न हुआ तो भारत युध्द मे कब्जा किये गये क्षेत्रों को वापस नहीं करेगा ।
दर-असल इस ताशकंद समझौते में भी हमेशा की तरह भारत को ही घाटे का समझौता करना पडा था । शास्त्री जी जैसे सरल व उदार प्रधानमंत्री अंतराष्ट्रीय राजनीति के खुर्राट लोगों के दवाब को न झेल सके तथा अनचाहे समझौता करना पडा था । कहा जाता है कि उसका दुख उन्हें इतना हुआ कि हार्ट अटैक से उनका वहीं देहांत हो गया ।
उस समय देश मे युध्द विराम किए जाने का तीखा विरोध भी हुआ था । दर-असल जिस समय यह युध्द विराम किया गया भारत युध्द में मजबूत स्थिति में था । पाकिस्तान की स्थिति काफी कमजोर पडती जा रही थी । लेकिन समझौते के तहत भारत को पीछे हटना पडा । तत्कालीन भारतीय सेना के कमांडरों को यह निर्णय जरा भी अच्छा नहीं लगा ।  यहां पर भी गौरतलब यह है कि भारत ने ही उदारता का परिचय देते हुए समझौते की शर्तों को स्वीकार कर लिया । आज तक ताशकंद समझौता भारत के दिल मे खटकता रहता है
। लेकिन पाकिस्तान की फितरत बदलने वाली नहीं थी । भारत को चौथा युध्द 1971 मे करना पडा । वैसे तो शुरूआत में यह पाकिस्तान का सीधा हमला नही था लेकिन बाद मे हालात ऐसे बने कि दोनो देशों के बीच तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और आज के बांगला देश को लेकर युध्द हुआ जो 13 दिनों तक चला । यह युध्द इतिहास का सबसे अल्पकालिक युध्द माना जाता है । भारत ने इन तेरह दिनों मे ही पाकिस्तान को नेस्तनाबूद कर दिया । उसे इस युध्द मे शर्मनाक हार झेलनी पडी ।
16 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तानी जनरल नियाजी को समर्पण के द्स्तावेजों पर हस्ताक्षर करने पडे । भारत ने 90,000 पाकिस्तानी सैनिकों को बंदी बनाया था । इसके बाद 1972 मे शिमला समझौता हुआ । पाकिस्तान ने बांग्लादेश की आजादी को स्वीकार करने के बदले में अपने युधबंदियों की रिहाई की मांग सामने रख दी जिसे भारत ने  स्वीकार कर लिया । लेकिन यहां वही कहानी दोहराई गई । युध्द में कब्जा की गई पश्चिम पाकिस्तान की 13000 किलोमीटर जमीन समझौते के तहत वापस कर दी गई । कहा जाता है कि भुट्टो के कहने पर भारत ने इस समझौते मे नरम रूख अपनाया ।
बात यहीं खत्म नही होती । अटल जी के नरम रूख को देखते पाकिस्तान ने कारगिल पर कब्जा करने की पूरी कोशिश की लेकिन भारतीय सेना की वीरता के आगे वह इसमें सफल न हो सका । यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान के लिए सीधे बस सेवा शुरू करने वाले अटल जी ही थे । कुल मिला कर भारत को अपने उदार रवैये का हमेशा खामियाजा ही भुगतना पडा है । पाकिस्तान भारत के इस नरम और उदार सोच से अच्छी तरह वाकिफ था  और इसीलिए उसका दुस्साहस बढता रहा है ।
लेकिन इस बार उसे अप्रत्याशित रूप से वह जवाब मिला जिसकी उम्मीद उसने कभी नही की थी । दर-असल तमाम छोटे बडे आतंकी हमलों के बाद जिस तरह हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने मुंबई व पठानकोट हमले को लेकर भी बहुत ज्यादा आक्रामक रूख नही अपनाया इससे वह भारत को बेहद ‘ सोफ्ट टारगेट ‘ समझने लगा था । रही सही कसर उसके परमाणु हमले की धमकी से पूरी हो रही थी । देश मे कोई भी सरकार हमले जैसी कार्रवाही करने का साहस नही जुटा पा रही  थी  ।यहां तक कि करगिल युध्द मे भी भारतीय सेना ने इंच भर सीमा  पार नही की थी ।  लेकिन उरी के हमले ने सब्र की सीमाएं तोड दी और पूरे देश से हमला करने की आवाजें उठने लगीं । अतत: मोदी सरकार ने जिस सटीक तरीके से ‘आपरेशन ‘ को अंजाम दिया उससे पूरा देश खुशी मे झूम उठा । लोग यही देखना चाहते थे ।
यह एक तरह से संदेश भी है कि भारत की नीति बदल चुकी है। आतंक के विरूध्द अब वह किसी सीमा तक भी जा सकता है । इसके लिए अगर उसे खुले युध्द का भी सामना करना पडे तो वह करेगा । सबसे महत्वपूर्ण यह कि वह परमाणु हमले की गीदड भभकी से भयभीत होने वाला नही । यह संदेश देना जरूरी भी था । इस कार्रवाही से विश्व बिरादरी मे भी भारत का मान बढा ही है । अन्यथा भारत को एक बहुत ही सहनशील देश के रूप मे देखा जाने लगा था ।

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