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महिला आजादी के नाम पर क्या संदेश देना चाहती हैं फिल्में?

यात्रा
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कभी कभी आश्चर्य होता है कि राजनीति से जुड़ी एक घटिया गॉसिप पर मीडिया के सभी माध्यमों से लेकर सोशल मीडिया तक में कई-कई दिन तक बहस हो सकती है, लेकिन प्रयोगवादी फिल्म के लबादे में प्रदर्शित हाल की दो फिल्मों ‘बेगम जान’ और ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ पर कुछ भी खास सुनने, देखने और पढ़ने को नहीं मिलता।


इत्तेफाक से दोनों फिल्मों के कथानक में महिला ही केन्द्र बिंदु पर है। परंतु जिस तरह से दोनों फिल्मों ने अपनी हदें पार की, उस पर बहस या चर्चा तो होनी ही चाहिए थी। यह सवाल पूछा ही जाना चाहिए था कि आखिर यह कैसी क्रिएटिव फ्रीडम है? क्या ‘ए’ सर्टिफिकेट देने मात्र से किसी फिल्म को पॉर्न फिल्म के रूप में दिखाने का लाइसेंस मिल जाता है?


अभी ताजा-तरीन तथाकथित प्रयोगवादी बोल्ड फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ महिला आजादी के नाम पर नई पीढ़ी की युवतियों को क्या संदेश देना चाहती है? फिल्म बेवजह के उत्तेजक दृश्‍यों के माध्यम से क्या युवाओं को  विशेषकर आधुनिक बालाओं को दैहिक रिश्तों के लिए उकसा नहीं रही? फिल्म की कहानी चार महिला चरित्रों की सेक्स कुंठा व फंतासी के इर्द-गिर्द घूमती है। साथ ही पहनावे से लेकर बाहर घूमने-फिरने की आजादी की वकालत करती भी नजर आती है।


फिल्‍म एक 55 वर्षीय प्रौढ़ महिला के चरित्र के माध्यम से यह भी बताने का प्रयास करती है कि सेक्स की इच्छा सभी में होती है। उसे बस बाहर निकलने के लिए अनुकूल हालातों या अवसर की तलाश रहती है। इन महिला चरित्रों की सेक्स जिंदगी को परदे पर जीवंत दिखाने के बहाने जिस तरह के दृश्‍य फिल्माये गये, उन्हें देखकर कोई भी शर्मसार हो जायेगा। सवाल उठता है कि बुर्के के अंदर लिपस्टिक दिखाने के बहाने यह फूहड़ता दिखाना क्या गैर जरूरी नहीं था।


ऐसा नहीं है कि कला या प्रयोगवादी फिल्में पहले नही बनीं। बल्कि गौर करें तो अस्सी व नब्बे का दशक तो कला फिल्मों का स्वर्णिम युग रहा है। सत्यजीत राय, मृणाल सेन, गोविंद निहलानी, ऋषिकेश मुखर्जी, सईद मिर्जा व महेश भट्ट आदि वे नाम रहे, जिन्होंने एक से बढ़कर एक बेहतरीन फिल्में दी हैं। अगर कथानक की दृष्टि से भी देखें, तो ऐसा भी नहीं कि महिला विषयों पर फिल्में नही बनीं। कई फिल्में तो ऐसी रहीं हैं, जो आज भी अपनी कलात्मकता, प्रस्तुतीकरण व विषय चयन के कारण याद की जाती हैं।


पचास व साठ के दशक में बनीं महिला चरित्र प्रधान फिल्मों का भारतीय फिल्म  इतिहास में एक अलग ही स्थान है। सत्तर, अस्सी व नब्बे के दशक में भी महिला विषयों पर फिल्में बनी हैं और खूब सराही गईं। कुछ खास फिल्मों में 1987 में बनी केतन मेहता की ‘मिर्च मसाला’ भी रही है। इसमें सोनबाई के चरित्र में स्मिता पाटिल के अभिनय को आज भी याद किया जाता है। इसी तरह मुख्य धारा से हटकर अलग विषय पर बनी फिल्म ‘अर्थ’ काफी सराही गई। कुछ अच्छी महिला प्रधान फिल्मों में ‘आस्था’, चांदनी बार,  लज्जा, कहानी और डर्टी पिक्चर भी रही हैं। इन फिल्मों ने भारतीय संदर्भ में औरत की सामाजिक स्थिति, उनकी समस्याओं, संघर्ष, सपनों और दुखों पर बहुत कुछ कहने का प्रयास किया है, लेकिन कहीं कोई फूहड़ता नहीं दिखाई।


‘बेगम जान’ आजादी के पूर्व एक कोठे पर रहने वाली कुछ वेश्याओं की जिंदगी की कहानी है। उनके रुतबे और फिर बिखराव की कहानी। ऐसे ही विषयों पर पहले भी फिल्में बनीं। इनमें ‘मंडी’ व ‘बाजार’ जैसी फिल्में आज भी याद की जाती हैं। कुछ वर्ष पूर्व बनी ‘चमेली’ ने भी काफी दर्शक जुटाये। इन सभी फिल्मों में महिला चरित्रों की कहानी कोठे की त्रासदायक जिंदगी के इर्द-गिर्द ही घूमती है। मगर जो खुलापन या यूं कहें कि दैहिक रिश्तों की नुमाइश ‘बेगम जान’ में देखने को मिली, वह इन फिल्मों मे कहीं नही थी। जबकि अपने कथानक व प्रस्तुतीकरण के कारण मंडी जैसी कला फिल्‍म दर्शकों और समीक्षकों द्वारा सराही गई। कम से कम इस दृष्टि से ‘बेगम जान’ पिछ्ड़ती नजर आती है।


सवाल उठता है कि क्या कोठेवालियों की जिंदगी के नाम पर इतना खुलापन परोसना गैरजरूरी नहीं लगता? सच कहा जाए तो यह फूहड़ता की पराकाष्ठा है। बहरहाल, आश्चर्य इस बात पर भी है कि बात-बात पर बैनर थाम लेने वाले  महिला संगठनों को भी इन फिल्मों में कोई बुराई नजर नहीं आई। नैतिक मूल्यों के झंडाबरदार भी खामोश रह जाते हैं। क्या इसे बदलते भारत की एक ऐसी तस्वीर मान ली जाए, जो देर-सबेर सभी को स्वीकार्य होगी, बिना किसी किंतु-परंतु के? अगर ऐसा है तो कहना पड़ेगा कि वाकई हम यूरोप से कहीं आगे निकलने की राह पर हैं।

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