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ये कहाँ जा रहे हम?

मेरे बोल
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किताबों में पढ़ते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है(था?). भोजन और जल की आसान उपलब्धता वाली जगहों पर लोग मिलकर साथ रहते थे.एक साथ रहने के कारण लोगों के खान-पान,रहन-सहन,रीति-रिवाजों में काफी समानता पाई जाती थी.मनुष्य प्रकृति से प्राप्त संसाधनों को दैवीय वरदान मानकर उसका संतुलित उपभोग करता था और उनका संरक्षण भी करता था. मनुष्य अपने पर्यावरण को स्वच्छ रखता था और प्रकृति से मिली हर वस्तु का सम्मान करता था, बदले में प्रकृति भी उसे भरपूर देती थी.लोग पर्व-त्योहारों को प्रकृति को समर्पित कर पूरे रीति-रिवाज के साथ बड़े उल्लास से मनाते थे.
समय बीतता गया. विज्ञान ने लोगों को आगे का रास्ता दिखाया.धीरे-धीरे मशीनीकरण बढ़ने लगा.विज्ञान ने हमें ऐसी-ऐसी सुविधाएँ दीं कि सब कुछ स्वपन सरीखा लगता है. मनुष्य ने कल्पना से भी ऊंची उड़ान भरी,चाँद पर पहुंचा,मंगल गृह की तैयारी है.हवा में उड़ते पंछियों को अचरज से देखने वाला मनुष्य मशीनों के सहारे खुद हवा में उड़ने लगा.रॉकेट, हवाई जहाज,रेल,गाड़ियाँ,रोबोट,कम्प्यूटर,टीवी,मोबाइल जैसे अनेक आविष्कार विज्ञान की कामयाबी के प्रमाण हैं.छोटे-बड़े अनेक कारखानों के लगने से उत्पादन बढ़ा,रोजगार बढ़ा,सुविधाएँ भी बढ़ी.रोजगार और सुख-सुविधाओं की तलाश में लोग गांवों से शहरों की ओर दौड़ने लगे.कई गांव ही शहरों में तब्दील हो गए.अन्न उत्पादन करने वाले खेत प्लाटों में और प्लाट फैक्ट्रीयों, मकानों और दुकानों में तब्दील होने लगे.
यकीनन इसने हमें बहुत कुछ दिया है. सुख-सुविधाओं के ऐसे साधन दिए हैं जिनके बिना जीना हमें बड़ा ही मुश्किल लगेगा.लेकिन गंभीरता से सोचने पर एक दूसरी भयानक तस्वीर भी दिखाई देती है.घटती कृषि भूमि और कटते वन ,जल का अंधाधुंध दोहन और प्रदूषित पर्यावरण दिनों-दिन विकराल रूप लेता जा रहा है. सुख-सुविधा के साधनों के अधिक प्रयोग से जो आराम हमें मिल रहा है वो हमारे लिए किस हद तक सही है? हम अपनी दैनिक जिन्दगी के हर काम के लिए मशीनों पर निर्भर होते जा रहे हैं. यही आराम शरीर को नाकाम कर रहा है.शारीरिक गतिविधियों की कमी हमें मोटा,आलसी और बीमार बना रही है.पहले स्वच्छ पर्यावरण,शुद्ध हवा,जल और अन्न मिलता था और लोग शारीरिक परिश्रम करते थे तो स्वस्थ रहते थे. आज नवजात बच्चों तक को ऐसी बीमारियाँ हो रही हैं कि उनकी दवा भी उपलब्ध नहीं है.बीमारियों के नित नए नाम गढ़े जा रहे हैं. माना कि चिकित्सा सुविधाओं में उल्लेखनीय प्रगति हुई है पर मरीजों और बीमारों की भीड़ कुछ और ही कहानी कह रही है.जैसे ही किसी बीमारी का इलाज तलाश किया जाता है, दूसरी बीमारी महामारी बनकर सामने खड़ी हो जाती है.बढ़ती दुर्घटनाओं का एक बड़ा कारण मशीनीकरण भी है.
औधोगीकरण और मशीनीकरण से सबसे ज्यादा नुकसान पर्यावरण का हुआ है. हवा,पानी, भोजन सब कुछ जहरीला हो गया है. जंगल कट गए हैं,सदानीरा नदियाँ सूखकर नाला बन गयी हैं या विलुप्त हो गयी हैं.गर्मियों की तो बात छोड़िये कई स्थानों में सर्दियों में भी पानी के लिए हाहाकार मचा रहता है.एक तो जहरीली हवा और पानी से ही अनेक बीमारियाँ हो रही थी, फिर उत्पादन बढ़ाने के लिए रासायनिक खादों के अंधाधुंध प्रयोग ने खाना भी जहरीला बना दिया. उसे खाना हमारी मजबूरी है और तब तक खाते रहेंगे जब तक शरीर ही उसे खाने के लिए अयोग्य न हो जाए.
बढ़ते मशीनीकरण ने उत्पादन तो बढाया ही लेकिन उपभोक्तावाद और बाजारवाद को बहुत बढावा दिया है. बाजारवाद ने एक नई परिभाषा गढ़ी है कि जो दिखता है वो बिकता है.हर चीज दिखने और बिकने को तैयार है. हद तो तब है जब जिश्म भी उत्पाद बनकर बिकने को तैयार है. भोग-विलास की इतनी अधिकता हो गयी है कि समाज,लोक-लाज का कोई भय नहीं रह गया है.भोग विलास कि अति न केवल मस्तिष्क में विकार लाती है,बल्कि हरपल एक नयेपन की चाहत करती है.जिससे मनुष्य पतन की ओर बढ़ता चला जाता है.
अपनी सुख-सुविधाओं के लिए ,सब कुछ किसी भी तरह पाने की चाहत में मनुष्य बहुत ही स्वार्थी बन गया है.परिवार का मतलब सिर्फ पति,पत्नी और बच्चे. कैसी विडम्बना है बच्चे अपने सगे रिश्तेदारों तक को ही नहीं जानते हैं.आज बच्चों के रिश्तेदार हैं कम्प्यूटर,मोबाइल और टीवी. अपने ही पड़ोसियों को सही से नहीं पहचानते हैं लोग. त्यौहारों के कार्यक्रम अगर टीवी पर नहीं आते तो कई लोगों को उसका पता भी नहीं चलता. नई पीढी के लिए तो त्यौहार वैसे ही होते हैं जैसे टीवी में दिखाए जाते हैं. उनके अपने त्यौहार तो हैं बर्थ डे,पिकनिक डे या होली डे. हर त्यौहार सिर्फ रस्म अदायगी के लिए ही मनाया जाता है,अब तो वो भी बहुत कम होता जा रहा है.
शादी-ब्याहों व अन्य पारिवारिक-सामाजिक कार्यक्रमों में लोग सिर्फ दस मिनट के लिए खाना खाने या रिकार्डिंग में दिखने की औपचारिकता निभाने आते हैं. किसी के पास समय नहीं है दूसरों के लिए. हमारे पर्व-त्यौहार और पारिवारिक कार्यक्रम ही तो थे जो आपस में हमें जोड़े रखते थे.जब वे भी सिर्फ औपचरिकता में निभाए जाते हैं तो संबंधों में आत्मीयता और मिठास के कहाँ से पाएंगे? सुख के अवसरों को तो छोड़िये आज आदमी दूसरे के दुखों में भी शरीक होने से बचता है.
सच पूछिए तो मशीनीकरण के साथ-साथ खुद आदमी भी मशीन ही बनता चला जा रहा है एकदम संवेदनाहीन.हर कोई दिखावटी सुख-सुविधाओं के पीछे भागने पर आमादा है. बनावटी जिन्दगी को परखे बगैर, आदर्श मानते हुए हम उसे अपनाना चाहते हैं.हम प्रकृति से बैर कर भाग रहे हैं और भागते हुए बहुत दूर जा रहे हैं अपनी संस्कृति,सभ्यता,रीति-रिवाजों और सम्बन्धियों से. एक अंतहीन दौड़ में हम पीछे छोड़ते जा रहे हैं अपना सब कुछ, सिर्फ छद्म सुख-सुविधाओं और भोग-विलास के लिए. सोचिये! मशीनीकरण और शहरीकरण की ये कीमत कहीं बहुत ज्यादा तो नहीं?

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