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दादा! तो पेश कर ही दिया?

मेरे बोल
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मैंने अपने पिछले लेख में लिखा था कि “क्या बजट पेश करना सिर्फ एक संवैधानिक आवश्यकता ही बनकर रह गया है? या फिर यों कह लें कि केवल परंपरा निर्वाह और औपचारिकता के लिए ही ये सब कवादत होती है.” जैसे कि परंपरा है कि कई महिनों तक विद्वान अर्थशास्त्री, वित्त मंत्रालय के बड़े-छोटे अधिकारी और कर्मचारी मिलकर कागजों में देश का भविष्य तैयार करते हैं.फिर माह मार्च के एक निर्धारित दिन से पहले कागजों के पुलिंदों को ढो-ढोकर संसद भवन तक लाया जाता है.वित्त मंत्री सज-धज कर हाथ में अटैची उठाकर यों मुस्कुराते हुए चले आते हैं कि पिछला हिसाब सब भूल जाओ, अबकी बार ऐसा पिटारा खोल देंगे कि सबकी बोलती बंद. जनता भी उनकी अटैची खुलने की यों प्रतीक्षा करती है कि मानो वित्त मंत्री की अटैची में मंगल गृह से जिन्न आ गया हो, वो उनके सब दुःख दूर कर देगा.बंद अटैची तो लाख की खुल गयी तो फिर …… .हमारी परम्परा की बानगी देखिये कि वित्त मंत्री भाषण सुनाते हैं, शेरो-शायरी या कविता सुनाते हैं, पानी पीते हैं और कुछ टोका-टाकी के बीच गला खंकार-खंकारकर पूरा सुनाते हैं. अपने लोग मेजें थपथपाते हैं, विरोधी लोग हो-हल्ला मचाते हैं. कुछ माननीयों को ये सब इतना उबाऊ लगता है कि वे सदन में ही ऊंघते-ऊंघते सो भी जाते हैं. इन सबके बीच वित्त मंत्री जीवट दिखाते हुए अपना भाषण पेश करते ही रहते हैं.सुनो-सुनो मैं वित्त मंत्री हूँ मुझे तो सुनना ही पड़ेगा. उनको सुनते-सुनते जो पेश होना होता है, पेश हो ही जाता है. अब किसी को खटका लगे या झटका इसकी कोई दवा नहीं होती.
अपने भाषण में वित्त मंत्री बोले कि मुझे उदार होने के लिए निष्ठुर होना पड़ेगा. बिलकुल सत्य महोदय! पर ये निष्ठुरता गरीबों के लिए ही क्यों? उत्पाद शुल्क व सेवा कर बढाकर मंहगाई का एक्स्लेरेटर दबा दिया.उधोगों पर उत्पाद शुल्क बढ़ने से उत्पादों के दाम बढेंगे .पेट्रोल-डीजल,गैस के दाम तो बढेंगे ही, क्योंकि उस पर आपका कंट्रोल केवल चुनाव तक ही रहता है.रोजगार के अवसर कैसे और कहाँ पैदा होंगे? राजकोषीय घाटा पूरा करने के लिए तो आपने टैक्स लगा दिया पर गैर जरूरी सरकारी खर्चों पर रोक कौन लगाएगा? विदेशों में जमा काले धन को वापिस लाने के लिए क्या किया? यदि राजनीतिक मजबूरी के चलते आप कुछ नहीं कर सकते थे तो बाबा जी को ही इसका इंचार्ज बनवा देते.
फिर बोले वित्त मंत्री कि ये बजट स्थायित्व के लिए है, ये बात कुछ जँच रही है. बंगाल की दीदी इतना हिला रही हैं कि स्थायित्व की सरकार को बहुत दरकार है. एक बात वित्त मंत्री और बोले कि वित्त मंत्री का जीवन आसान नहीं होता. माना कि वित्त मंत्री का जीवन आसान नहीं होता पर दूसरों को भी जीने न दो ये किस अर्थशास्त्र में लिखा है?
जब यही सब करना था तो इतने काबिल लोग इतने दिनों से क्या कर रहे थे? किसी भी दफ्तर के एक बाबू और एक चपरासी को बैठाते.पिछले साल के बजट के पुलिंदे को उठाते.बस वर्ष की जगह सफेदा लगवाते.हिदुस्तानी बाबू बड़े उस्ताद होते हैं बड़ी होशियारी सिर्फ वर्ष बदल देते. चिंता न करो मोहर आपकी ही होती, बिलकुल ओरिजनल. परंपरा का निर्वाह भी हो जाता और आपके बहुमूल्य समय और देश के धन की बचत होती.जनता भी यह सोचकर शुकून में रहती कि ये दर्द तो पिछला ही चला आ रहा है कोई नया तो नहीं मिला.

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