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क्या हो आदर्श ग्राम ब्यवस्था ?

brajendra_rachnayen
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प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी के पिछले १५ अगस्त के लाल किले से अपने पहले सम्बोधन में हर एक सांसद को हर वर्ष एक गावं को आदर्श गावं बनाने के लिए प्रतिबद्ध होने को कहा है। यूं पी राज्य में बनारस के निकट जयापुर गावं को स्वयं गोद लेने की पहल करके उन्होंने राजनेताओं को गावों की और लौटने के लिए अपरोक्ष रूप में ही सही एक सकारात्मक आह्वान भी किया है। सांसद और कहें तो हर राजनेता गावों से दूर होता चला जा रहा है। चुनाव -पर्व के समय गावं की तरफ रुख किया जाता है। वोट के लिए विकास के वायदे किये जाते हैं। चुनावी हवा के शांत होते ही गावं पीछे छूट जाता है। वोट की गट्ठर समेटे नेता आगे बढ़ जाता है। फिर पाँच वर्ष बाद देखा जाएगा। हर चुनाव, चाहे वह लोकसभा का हो या विधान सभा का हो , हर गावं में विकास की उम्मीद जगाता है। यह उम्मीद वक्त के साथ धीरे – धीरे मुरझाने लगती है।
गावं वहीं – का – वहीं रह जाता है और नेता जी आगे चले जाते है। पीछे मुड़कर नहीं देखना उनकी मजबूरी होती हो या जानबूझकर नहीं देखना चाहते हों, पता नहीं। लेकिन हर चुनाव बाद गावं में भी संकीर्ण भावनाओं को हवा देकर जनता को और भी अधिक विभाजित कर गावं को बिखेरने का काम पिछले हर चुनाव में होता रहा है। नेताओं को फिर से उसी गावं की और लौटकर वहां विकास की धारा को जमीन पर उतारने के काम के लिए क्या वे अपनी प्रतिबद्धता और विस्वसनीयता को स्थापित कर सकेंगे? यह एक बड़ा सवाल है।
गावं को आदर्श गावं बनाने के लिए पहले समझना होगा कि आदर्श गावं की क्या अवधारणा है? किसे आदर्श गावं कहेंगे? क्या स्वरुप हो आदर्श गावं का ? इसके बारे में स्पष्ट रुपरेखा कहीं भी बनाई हुई नहीं मिलेगी। इसकी परिभाषा हर गावं को अपने संसाधनों, सरकारी मदद तथा स्व प्रयास के द्वारा खुद ही तय करनी होगी। परन्तु इतना तो सत्य है कि आदर्श ग्राम वही कहलायेगा जहाँ का कोई भी ब्यक्ति भूखा नहीं सोता हो , जहाँ कोई भी मामला अदालत में लंबित नहीं हो, जहाँ सामूहिक सहकार हो, जहाँ सामाजिक समरसता हो, कोई भी गुटबंदी न हो , आर्थिक विषमता , अन्याय उत्पीड़न का दृश्य नहीं हो। अर्थात गावं हर दृष्टि से स्वावलंबी हो।
कैसे गावं स्वावलम्बी हों ?
मूलभूत सुविधायें:
गावं के स्वावलम्बी होने के लिए मूलभूत सुविधाओं की जरूरत सबसे अहम है। मूलभूत सुविधाओं में गावं तक यातायात के साधनों की पहुंच के लिए सर्व मौसमोपयोगी सड़क का होना जरूरी है। सांसद या राज्य विधान पार्षद अगर किसी गावं को आदर्श गावं के रूप में परिवर्तित करने की इच्छा रखते है तो उन्हें ऐसे गावं को चुनना चाहिए जो सबसे सुदूरवर्ती क्षेत्र में स्थित है। वहां तक अगर सड़क बनती हैं तो अन्य गावं भी सड़क से जुड़ते चले जायेंगे। यानि आदर्श गावं आसपास के अन्य गावों के लिए भी न्यूक्लियस का कार्य करेंगे। इसके बाद बिजली और पानी का स्थान आता है। बिजली को गावों तक पहुँचाने का मतलब सिर्फ पोल गाड़कर बिजली के तार खींच देना ही नहीं है। बिजली की उपलब्धता को भी सुनिश्चित करना अत्यावशक है। बिजली की उपयोगिता सिर्फ गावं की गलियों और घरों को रोशन करने के लिए ही नहीं है बल्कि खेतों की सिंचाई से लेकर गावं में ही उपलब्ध संसाधनो पर आधारित उद्योगों को स्थापित कर उन्हें चलाने में भी है। बिजली और पानी दोनों ही एक – दूसरे से ऐसे घुले – मिले हैं कि दोनों में से किसी के बिना भी गावं को आत्मनिर्भर बनाने का सपना पूरा नहीं हो सकता। पानी की उलब्धता से ही जुड़ा है शौचालयों का निर्माण , उनका सञ्चालन और रख रखाव। साफ़ और स्वच्छ जल की ब्यवस्था और उनकी निरंतर आपूर्ति गावं के सामान्य स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध रखता है। फिर आता है गावं के नालियों की ब्यवस्था और उनका प्रबंधन। सामान्यतः होता यह है कि एक बार नालियां बना दी गयी , सरकारी मद में आबंटित राशि से। दो – तीन साल बाद नालियां टूट गयीं। अब नालियों का पानी बिखरकर सारी गली में फ़ैल गया । उसी गली से मवेशियों का जाना होता है। तो आप समझ सकते हैं कि कीचड से सनी गीली मिट्टी पूरे वातावरण में एक तरह की दुर्गन्ध फैला रहे होते हैं। यही दुर्गन्ध बीमारी के रूप में हर तरफ ब्याप्त हो जाती हैं। अर्थात मूलभूत सुविधाओं को सरकारी मद के पैसे को खर्च करके सिर्फ पहली बार उपलब्ध करा देना ही पर्याप्त नहीं है। उन सुविधाओं को कैसे उचित प्रबंधन और रख रखाव द्वारा कायम रखा जाएगा यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है।
गावं की सामाजिक , आर्थिक वास्तविकता :
गावं में विभिन्न जातियों के लोग निवास करते हैं। गावं मुख्यतः आर्थिक रूप से कृषि कार्य एवं दुग्ध उत्पादन पर निर्भर रहा करता था। कृषि कार्य सामाजिक सरोकार और सहकार पर ही आधारित था। लेकिन आज़ादी के पहले अंग्रेजों ने गावं के कुटीर – उद्योगों को नष्ट किया। और आज़ादी के बाद राजनीती और राजनीतिज्ञों ने वोट के लिए गावों में जातीय और वर्गीय विभाजन को और भी गहरा कर दिया। इससे गावं में सामाजिक समरसता और सहकार कम होता चला गया। गावं आज बिखराव और विपन्नता का दंश झेल रहे हैं। इस स्थिति में कृषि कार्य बिलकुल चौपट हो गया है। कृषि योग्य भूमि का असामान्य वितरण और कृषि उत्पादन के लिए सिंचाई की ब्यवस्था में कमी , बीज और खाद की समय पर अनुपलब्धता, जमीन की उर्वरता में कमी और कृषि मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी में सरकार द्वारा वृद्धि के कारण कृषि कार्य को आर्थिक रूप से घाटे का सौदा बना दिया है।
पहले जिनके पास अधिक भूमि थी वे संपन्न माने जाते जाते थे। आज ऐसी स्थिति नहीं है। कृषि – कार्य और कृषि – उत्पादन के परंपरागत खरीफ और रब्बी के उत्पादों में सिमट जाने के कारण इन उदपादों का उचित मूल्य भी नहीं मिल पाता है। बाजार इनका मूल्य तय करता है , उत्पादक नहीं। कृषक के पास भण्डारण की न तो कोई ब्यवस्था है और न ही उत्पादों का कोई अधिक सेल्फ लाइफ है। ऐसी स्थिति में भूमिवान किसान भी आज विपन्नता की स्थिति से गुजर रहे हैं।
आज भी गावं की ३५-४० प्रतिशत आबादी कम जोत वाले किसान या भूमिहीन किसान – मज़दूरों की है। कृषि – कार्य ब्यवसाय के economically unviable होने के कारण इसकी तथा इसमें लगे लोगों की गिरती आर्थिक स्थिति और किसान तथा किसान मज़दूर के असंगठित ढाँचे ने इसमें बदलाव के लिए किसी भी तरह के संगठित प्रयास की संभावनाओं को खत्म कर दिया है।
साथ ही आजकल अधिकांश गावं आतंरिक विग्रह और गुटबाजी से जर्जर मुकदमेबाजी के फलस्वरूप तनाव और नैतिक अराजकता के शिकार हो गए हैं। सामाजिक एवं आर्थिक विषमता, शोषण, अन्याय , उत्पीड़न का दृश्य अपने उग्र रूप में उपस्थित है। आज समाज में हर जगह दुर्योधन का दरबार सजा है। द्रौपदी का चीर – हरण हो रहा है और भीष्म, द्रोण, विदुर आदि चुप बैठे है। गावं भी ऐसे अन्यायपूर्ण वातावरण से अछूते नहेीं हैं। गावं की ऐसी स्थिति में गावं के सामूहिक जीवन को पुनर्स्थापित कर पाना बहुत मुश्किल है। लेकिन यह भी सही है कि गावं को अगर इस गर्त से निकाला नहीं गया तो गावं उसमें और डूबते जायेंगे और अपने साथ देश को भी ले डूबेंगे।
ऐसे में आदर्श ग्राम की स्थापना के लिए विधेयात्मक प्रयास किया जाना मरुस्थल में सुखदायी मरूद्यान की स्थापना जैसा दीखता है। क्या ऐसे मरुद्यानों का फैलाव होगा ? क्या मरुस्थल सिमटते चले जायेंगे ? आइये इस प्रश्न पर विचार करें :
आदर्श- ग्राम के मानक:
आदर्श गावं के रूप में परिवर्तित किये जाने के पहले उस गावं की
१) प्रतिब्यक्ति आय कितनी थी ?
२) छोटे किसानों और भूमिहीन किसान – मज़दूरों की प्रतिब्यक्ति आय कितनी थी?
आदर्श – ग्राम बनाये जाने पर ये सब मानकों पर गावं के विकास की जांच – पड़ताल की जा सकती है :
१) क्या गावं में हर परिवार के गावं में ही रहने वाले कम – से – कम एक ब्यक्ति का बैंक अकाउंट है।
२) क्या हर घर में पावर व्हीकल टू व्हीलर या थ्री – फोर व्हीलर है ?
३) क्या गावं का हर स्त्री – पुरुष साक्षर हो गया है ?
४) क्या हर घर में शौचालय एवं स्नान -गृह है ?
५) क्या गावं के नालियों की सफाई तय अंतराल पर हमेशा होती है ?
६) करा गलियों में प्रकाश की उचित ब्यवस्था है ?
७) गावं के बाहर नौकरी करने वालों की संख्या कितनी है?
८) गावं में क्या कृषि – उत्पाद आधारित उद्योग स्थापित किये गए हैं और चलाये जा रहे हैं?
अगर इन सभी मानकों पर गावं में धनात्मक दिशा में विकास हुआ है तो आदर्श ग्राम की कल्पना धरातल पर उतरती हुई मालूम पड़ेगी।
इस विकास को स्व संपोषणीय (self sustainable) भी होना पड़ेगा। यानि बाद में बिना कोई बाहरी मदद के विकास की गति बनी रहे। इसके लिए ग्रामस्वराज्य की स्थापना को अपनाना पड़ेगा।
गावं में ही स्व-उद्भूत पारदर्शी नेतृत्व का विकास होना चाहिए। यह नेतृत्व ही ग्राम स्वराज्य को गावं में लाने वाला बनेगा।

ब्रजेंद्र नाथ मिश्र
जमशेदपुर
Date: 19-11-2014

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