Menu
blogid : 1108 postid : 1345061

‘चप्पा-चप्पा चरखा चले’

samanvay
samanvay
  • 169 Posts
  • 30 Comments

charkha


‘तमाशा’ में प्रकाशित श्रीप्रकाश पुरोहित जी का व्यंग पढा। पढ़कर आश्चर्य हुआ कि परम आदरणीय गुलज़ार जी का कवित्‍व ‘चप्पा-चप्पा चरखा चले’ वे अपने पुत्र को समझाने मे विफ़ल रहे। लाइये मैं समझाता हूँ। यह उस समय की बात है जब परम प्रिय बापू ने विदेशी सामान का बहिष्‍कार करने का आह्वान किया और स्वदेशी अपनाने के लिये घर में स्वनिर्मित खादी को चरखे से सूत कातकर बनाने की अपील की और ‘चप्पा-चप्पा चरखा’ चल उठा।


बेशक आज साहित्यकारों की समझ से परे हो, परन्तु चप्पा-चप्पा का अर्थ राजनीतिक और प्रशासन के लोग भलीभाँति जानते हैं कि इस फॉर्मूले से कितना लाभ है? चाहे ब्‍लॉक प्रमुख या प्रधान का चुनाव हो या फिर हाईस्कूल/इन्टरमीडिएट की परीक्षा। चाहे गुर्ज़र या जाट आन्दोलन या ‘बीफ़’ खाने से हिंसा भड़की हो। ठीक-ठाक न हो पाने के लिये मंत्री जी, कमिश्‍नर अथवा डीएम साहब की प्रेस कान्फ़्रेंस में केवल इतना कह देना ही काफ़ी है कि ‘चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात कर दी गई है, स्थिति नियन्त्रण में है’। यानी कि अब इलेक्शन में सत्ताधारियों को चुनाव पेटियों मे हेरफ़ेर पर सवाल नही उठेंगे और न केन्द्र व्यवस्थापकों को केन्द्र संचालन में नकल पर नकेल लगेगी।


न तो वोट बैंक की राजनीति जातिगत-आरछ्ण पर पिटेगी और न ही भड़की जनता हिंसक हो दूसरी हत्या करेगी। क्योंकि ‘चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात है’। स्वतंत्रता से पूर्व अंग्रेज़ी हुकूमत भारतीयों पर नकेल कसने के लिये इस्‍तेमाल करती थी, अब नेता व प्रशासनिक अधिकारी सुव्यवस्था के लिए, कयोंकि ‘जिसकी लाठी, भेंस उसी की रहे’। हां, अब ‘चप्पा-चप्पा चरखा’ नहीं ‘चप्पा-चप्पा लठ्ठ चले’ गुन्डों का या प्रशासन का।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh