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देश के सभी शहरों से महत्वाकांक्षा की उड़ान भर कर हजारों अभ्यर्थी रोजाना मुंबई पहुंचते हैं। इन में से कुछ दिल्ली से आते हैं। दिल्ली से अपने सपनों के साथ मुंबई पहुंचे लोगों में एनएसडी के स्नातक भी शामिल होते हैं। मुंबई की मायानगरी उन्हें काम,नाम, शोहरत, यश, वैभव, धन, लोकप्रियता और संतुष्टि के लिए यहां खींचती है। संतुष्टि आखिरी सत्य है, जो प्राय: नहीं मिलती। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कामयाब व्यक्तियों का दिल-ओ-दिमाग खरोंचे तो असंतुष्टि के हरे जख्म मिलेंगे। कभी कामयाबी तो कभी किसी और चीज की तात्कालिक पपड़ी संतुष्टि का भ्रम देती रहती है। लगन और मगन होने से ऐसा लगता है कि वे संतुष्ट और आनंदित हैं, लेकिन कभी दो-चार पेग का सुरूर आ जाए या उनकी दुखती नब्ज पर उंगलियां पड़ जाएं तो विवश मन की कराह सुनाई पड़ती है। मैंने कई कलाकारों के आर्त्तनाद
सुने हैं। शायद यह अतिशयोक्ति लगे, लेकिन एनएसडी से आए ज्यादातर स्नातक एक अवसाद में जीते हैं। आधे-अधूरे से भटकते रहते हैं और किसी दिन निर्मल पांडे की तरह खामोशी में पलकें बंद कर लेते हैं। कोई हलचल नहीं होती। सपनों का तैरना-उपलाना बंद नहीं होता। नए सपनों के साथ युवा महत्वाकांक्षी अदृश्य या ओझल होती लक्ष्यों के पीछे दौड़ते-भागते दिखाई पड़ते हैं। मुंबई में उनका आना जारी रहता है। जाना नहीं हो पाता। जाने मे अपमान का एहसास हावी रहता है। क्या मुंह दिखाएंगे? वे लौट कर जीने के बजाए यहां मर-खप जाना पसंद करते हैं।
निर्मल पांडे के निधन के बाद उनके कई साथियों ने कहा और माना कि मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री ने उनके साथ न्याय नहीं किया। उनकी प्रतिभा का समुचित उपयोग नहीं हो पाया। आरंभ की कुछ फिल्मों में उन्होंने अपनी मौलिकता से प्रभावित किया था, लेकिन हिंदी फिल्मों के घिसे-पिटे निर्माता-निर्देशक उनके लिए भूमिकाएं नहीं निकाल सके। उनके एक दोस्त ने बताया कि निर्मल वास्तव में लोक कलाकार था। उसमें नैसर्गिक प्रतिभा थी, जो हिंदी फिल्मों के खांचे में फिट नहीं हो सकती थी। वह इस शहर के लायक नहीं था। बेहतर होता कि निर्मल लौट गए होता और उत्तरांचल में अपनी खूबियों का उपयोग करता। रंगमंच और लोकनाट्य में सक्रिय होता। मुंबई ने उन्हें प्रदूषित किया। उनकी प्रतिभा इस प्रदूषण से क्षरित हुई और आखिरकार आजीविका के लिए वे जिन कामों में लीन हुए, उन्होंने उन्हें और अधिक हताश किया। कैसी विडंबना है कि एक जमाने में चर्चित निर्मल पांडे से उनके साथियों और एनएसडी के छात्रों का मिलना-जुलना बंद हो गया था। वे एकाकी जीवन जीने के साथ अकेले भी हो गए थे। यह अकेलापन जानलेवा होता है,क्योंकि बीच भीड़ में अकेलेपन की उंगलियां गले पर कसती चली जाती हैं। एक दिन दम घुट जाता है।
निर्मल पांडे जैसी प्रतिभा के दर्जनों आटिस्ट मुंबई में सही मौके की तलाश में गुमनाम जिंदगी बसर कर रहे हैं। उनमें से चंद नसीर, ओम पुरी, इरफान खान और राजपाल यादव की तरह दुनियावी रूप से कामयाब दिखते हैं। इनकी कामयाबी नई प्रतिभाओं को उत्प्रेरित करती है। वे भी दौड़े चले आते हैं, लेकिन मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री निर्मम और निर्मोही है। प्रतिभा परखने का फिल्म इंडस्ट्री में कोई पैमाना नहीं है। और फिर देश के सुदूर इलाकों से आई प्रतिभाओं की आंखों में शाहरुख खान की लोकप्रियता कौंधती रहती है। वे सब अपनी प्रतिभा,पहचान और विशेषता को संभालने के बजाए शाहरुख खान बन जाना चाहते हैं। नतीजा यह होता है कि उन्हें अपनी सफलता अधूरी लगती है। मुंबई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के वीराने में वे अपनी रही-सही पहचान भी खो देते हैं। वक्त थमता नहीं है। वह दिन के चौबीस घंटे की रफ्तार से बढ़ता जाता है और उनके सपनों की छोटी-बड़ी सूई कहीं अटक और फंस जाती है। टिक-टिक तो सुनाई पड़ती है, लेकिन कांटे अपनी जगह पर ही हिलते दिखाई पड़ते हैं।
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