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सिनेमा में आवाज के 80 वर्ष

वाया बीजिंग
वाया बीजिंग
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भारत में बोलती फिल्मों के आठ दशक पूरे हो गए हैं। आज से 80 वर्ष पहले मुंबई के मैजेस्टिक थिएटर में हिंदी की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ लगी थी। रोजाना तीन शो में लगी इस फिल्म को देखने के लिए दर्शक टूट पड़े थे। अर्देशर ईरानी ने इंपीरियल मूवीटोन के बैनर तले ‘आलम आरा’ का निर्देशन किया था। इस फिल्म का गीत दे दे खुदा के नाम पर गाकर वाजिद मोहम्मद खान हिंदी फिल्मों के पहले प्लेबैक सिगर बन गए थे।
फिल्म ‘आलम आरा’ से अभी तक की फिल्मों में साउंड के सफर पर साउंड रिकार्डिस्ट हितेन्द्र घोष ने जागरण से विशेष बातचीत में कहा कि ‘आलम आरा’ के समय ऑप्टिकल रिकार्डिग होती थी। तब सभी को कैमरे के सामने ही गाना पड़ता था। उन दिनों साउंड निगेटिव पर ही प्रिंट होता था। ईरानी के समय अलग से रिकार्ड कर फिल्म में मिक्स करने की व्यवस्था नहीं थी। अगर कोई गलती हो जाए तो पूरी रिकार्डिग फिर से करनी पड़ती थी।
घोष कहते हैं कि ऑप्टिकल के बाद मैग्नेटिक रिकार्डिग का दौर आया। साउंड के तकनीकी विकास से हिंदी फिल्मों में काफी विकास आया। मोनो रिकार्डिग, स्टीरियो, मोनो ट्रैक, फोर ट्रैक, डोल्बी आदि रिकार्डिग के अलग-अलग दौर की तकनीक हैं। हम पुरानी फिल्में देखते समय साउंड का फर्क महसूस कर सकते हैं।
वह अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि 1997 में डोल्बी के आने के बाद से सिनेमा का साउंड बिल्कुल बदल गया। आम दर्शक फिल्म देखते समय इमोशन में डूबता-उतराता रहता है। लोगों को लगता है कि कहानी या एक्टिंग से वह प्रभावित हो रहा है, लेकिन सच यह है कि यह साउंड का कमाल होता है।
घोष कहते हैं कि हमलोग फिल्मों के बैकग्राउंड में लाउड साउंड रखते हैं। इसकी दो वजहें हैं- एक तो अपने देश के अधिकाश सिनेमाघरों का साउंड सिस्टम सही नहीं रहता और दूसरे बचपन से हम ऊंची आवाजें सुनने के आदी होते हैं।
फरहान अख्तर जब ‘डॉन’ की साउंड मिक्सिग कर रहे थे तो उन्होंने मुझसे कहा कि इस बार हमलोग आस्ट्रेलिया के साउंड रिकार्डिस्ट से काम करवाएंगे। उन्हें फर्क समझ में आ गया। इस बार ‘डॉन-2’ के लिए उन्होंने मुझे फिर से बुलाया है। हिंदी फिल्मों में साउंड का अलग पैटर्न होता है। उसे विदेशी नहीं समझ सकते। हमलोग आधे सेंकेड का भी स्पि्लट सगीत तैयार करते हैं।
पिछली सदी के आठवे, नौवें और अंतिम दशक में डबिग पर बहुत जोर दिया जाता था। एक्टर अपने सवादों पर अधिक मेहनत नहीं करते थे, क्योंकि डबिग में वे सुधार कर लेते थे। सन् 2000 में आई फिल्म ‘लगान’ से सिक साउंड का चलन बढ़ा।
अब तकनीकी सुविधा बढ़ गई हैं। पहले सिक साउंड या शेटिंग साउंड के लिए बूत का इस्तेमाल होता थ। अब लेपल माइक लगा दिया जाता है। इससे आर्टिस्ट के साउंड का अलग-अलग लेवल मिल जाता है।
सिक साउंड एक तरह से पुराने ऑप्टिकल रिकार्डिग जैसा ही प्रभाव पैदा करता है। गौर करें तो हम ‘आलम आरा’ के दौर में ही आ गए हैं। पहले अभाव की वजह से वैसी रिकार्डिग करते थे। अब तकनीक से लैस होने की वजह से सिक साउंड मे रिकार्डिग करते हैं।
एफटीआईआई से आने के बाद 1973 में ही मैंने श्याम बेनेगल की फिल्म ‘अंकुर’ और ‘निशात’ में ओरिजनल साउंड रखने का प्रयोग किया था। बीच के दौर में तो कैमरे की आवाज भी फिल्म में आती थी, जिसे मिक्सिग के समय दूर किया जाता था। अब साउंडलेस कैमरे आ गए हैं। स्टूडियो भी साउंडलेस हो गए हैं।
फिल्मों में साउंड का बड़ा महत्व होता है। हम साउंड से दर्शकों को रुला देते हैं। अगर फिल्म से साउंड निकाल दें तो इमोशनल सीन में भी एक्टर दर्शकों को प्रभावित नहीं कर सकेंगे। आजकल ज्यादातर फिल्में दर्शकों को पसद नहीं आतीं।
मैंने गौर किया है कि विदेशी साउंड और साउंड इफेक्ट डालने से ऐसा हो रहा है। जिन फिल्मों में विदेशी साउंड रिकार्डिस्ट होते हैं, उन फिल्मों को भारतीय दर्शक रिजेक्ट कर देते हैं। मजेदार तथ्य यह है कि उन्हें पता नहीं चलता कि उन्होंने किसी फिल्म को क्यों नापसद किया।
(हितेन्द्र घोष हिंदी फिल्मों के मशहूर साउंड रिकार्डिस्ट हैं।)

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