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कहते हैं कि भारत विभिन्नताओं का देश है,इन तमाम विभिन्नताओं के बीच कुछ है जो हमें एक किये हुए है,यह अदृश्य शक्ति ऐसे दिखाई नहीं देती है ,वह दिखाई देती है खेल के मैदान में ,जब कोई खिलाडी ओलिंपिक के मैदान में पदक जीतता है,तभी कोई क्रिकेटर क्रिकेट के मैदान में रनों का अंबार लगाते हुए अपने बल्ले को ऊँचा उठाता है,उस समय मैदान में लहराता तिरंगा और चाक दे इंडिया के गूंजते तराने हमारे अंदर रोमांच की एक ऐसी लहर ,एक ऐसी सिहरन भरते हैं कि हमारा रोम रोम गर्व से भर उठता है,उस समय लगता है कि ये खेल ही है जो तमाम देशवासियों के दिलों को एक साथ धड़कने पर मजबूर करता है लेकिन निराशा उस समय होती है जब हमारे खिलाडी हमारी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते हैं, जब ओलिंपिक की पदक तालिका में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र सबसे नीचे दिखाई देता है उस समय हमारा सर शर्म से झुक जाता है,और हमें सोचने पर विवश करता है कि तमाम प्रयासों के बाद भी खिलाडियों का प्रदर्शन क्यों गिरता है ? आखिर चूक कंहाँ हो रही है देश के कोने कोने में फैली प्रतिभाओं को खोजने में या जिन खिलाडियों पर हम दांव लगाते हैं उनके प्रशिक्षण में
ये सच है कि अकादमियों में खिलाड़ियों की नैसर्गिक प्रतिभाओं को निखारा जाता है,लेकिन गिने चुने स्थानों पर ये अकादमियां खोलकर इतने विशाल देश में दूर दूर तक फैली प्रतिभाओं को तराशना मुश्किल ही दिखाई देता है,जबकि शुरुआत प्राथमिक स्तर से होना चाहिए, इसके लिये हमारे प्राथमिक विद्यालय खेल की सर्वश्रेष्ट अकादमी साबित हो सकते हैं,यदि प्राथमिक विद्यालयों में प्रशिक्षित खेल शिक्षक नियुक्त किया जाये और खेलो को उतना ही महत्व दिया जाये जितना हम पढाई को देते हैं,खेल सामग्रियां ईमानदारी से मुहिया कराई जाएं तो हमें शुरुआत से खेल प्रतिभाओं को पहचान कर उन्हें आगे बढाने में मदद मिलेगी,लेकिन सच ये भी है कि जब देशभर के विद्यालय विषय शिक्षको की कमी से जूझ रहे हों तो ऐसे में खेल शिक्षकों की नियुक्ति वो भी प्राथमिक स्तर पर दूर की कौंड़ी ही लगती है,ये कहीं न कहीं सरकार की नीतियों पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है।
एक बात ये भी है अधिकांश विद्यालयों में खेल मैदानों का अभाव है इनमे गली मोहल्लों के दो चार कमरों में संचालित वे निजी शिक्षण संस्थाएं भी है जो शिक्षा को एक व्यवसाय की तरह अपनाएं हैं,इनसे खेल और खिलाडी की आशा करना बेमानी ही है।
वहीँ दूसरी ओर हमारे देश की भ्रष्ट शासन व्यवस्था भी इसके लिए कम दोषी नहीं है।शासन के नुमाईंदों का ध्यान योजनाओं के प्रक्षेपण जमीनी स्तर से कम,खेल सामग्रियों की खरीद फरोख्त,जिला संभाग ,प्रदेश,राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले जलसों के आयोजनों पर ज्यादा रहता है।कामनवेल्थ घोटाला इसका वृहद् रूप है,मगर ऐसे छोटे छोटे कामनवेल्थ घोटाले हमारे देश हर समय होते हैं।इन लोगो के लिए खेल का अर्थ प्रतिभाओं के प्रोत्साहन से नहीं बल्कि सामग्रियों में मिलने वाले कमीसन व् जलसों में होने वाले खर्चों को बढ़ाचढ़ाकर पेश करना ही है।
अब ऐसे में कोई खिलाडी अपनी प्रतिभ की दम पर पदक जीतता है तो भारतीय मानस में एक मसीहा की तरह उभरता है,चार साल तक उसे हर जगह पूजा जाता है,इन चार सालों में हर रियलिटी शो विज्ञापनों की वह जान होता है उसे तश्तरी में रखकर हर जगह पेश किया जाता है,हम निश्चिन्त हमारे पास मसीहा है न मगर उम्मीदों का दवाब इतना बढ़ जाता है कि वे ओलिंपिक की चौखट पर आते आते दम तोड़ देती हैं और हमारी आशाएं निराशाओं में बदलते देर नहीं लगती,ये सोचने का विषय है कि हमारे खिलाडी एक बार पदक जीतने के बाद दुबारा वो प्रदर्शन क्यों नहीं कर पाते है,?
कहीं न कहीं इसके लिए दोषी हम भी है,हमें चाहिए कि हम खिलाडियों को खिलाडियों की तरह रहने दें उन्हें सुपरमैन की तरह पेश करना बंद करें तभी वे बिना किसी दवाब के स्वाभाविक खेल खेल सकेंगे। कभी महान साहित्यकार जी के चेस्टर टन ने कहा था कि खेल जब तक खेल रहता है,हरेक इसे खेलना चाहता है,लेकिन खेल जब एक कला बन जाता है तो हरेक इसे देखना पसंद करता है।
हमें खिलाडी पैदा करने हैं दर्शक नहीं,इसलिए हमारा कर्तव्य बनता है कि हम खेलों को अपनी जीवनशैली मैं शुमार करें,सरकारी प्रयासों के इतर गांव गांव में फैली खेल प्रतिभाओं को आगे लाने में अपना योगदान दें।
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