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चमकती आँखें

Idhar udhar ki
Idhar udhar ki
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तुम्हें शाम होते ही घर लौटना होगा,
हाँ, दिन ही हमारे लिए ठीक है,
तुम समझती क्यों नहीं, शाम के बाद शुरू होता है, स्याह अँधेरा,
रास्ते पर दौड़ती गाड़ियों में नहीं बैठा होता है कोई आदमजात,
निःशब्द गलियों में शिकारी भेड़ियों की घूरती आँखे,गंध पाते ही चमक उठती है, टूट पड़ते हैं समूह में और चीखें फंसकर रह जाती हैं उनके नुकीले दाँतों में, उस समय नहीं दिखाई देती इंसानी रूहें, प्रकट हो जाती हैं सैकड़ों शैतानों की आत्मायें, उत्पन्न हो उठता है, हिंसक पशुओं की लूट खसोट का वीभत्स दृश्य, चुनौती देता है मानव सभ्यता के खोखले विकास को ; सच जो अब तक छुपाया था जिसे मैंने अपने आँचल में, तुम्हें इसे ही लेकर आगे बढ़ना होगा, खोजना होंगीं वो इंसानी बस्तियां जहां पर शायद ही कभी शाम हो।
तुम सब समझने लगोगी बेटी, बस दूर रहना इन चमकती आँखों से।
(एक मां अपनी किशोरवय बेटी को समझाते हुए)

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