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कोई उम्मीद बर नहीं आती

ब्रज की दुनिया
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मित्रों,भगत चा यानि शिव प्रसाद भक्त उसी आरपीएस कॉलेज,चकेयाज,महनार रोड,वैशाली में दफ्तरी हैं जहाँ से मेरे पिताजी साल २००३ में प्रधानाचार्य बनकर रिटायर हो चुके हैं.उनसे मेरा परिचय तब हुआ जब १९९२ में हमारा परिवार जगन्नाथपुर छोड़कर महनार आ गया.यह उनके व्यक्तित्व का ही जादू था कि वे बहुत जल्द हमारे परिवार का हिस्सा बन गए.मेरी छोटी दीदी की शादी में लगभग सारा इंतजाम उन्होंने ही किया था.
मित्रों,भगत चा १९८० से कॉलेज में हैं लेकिन उनको वेतन नहीं मिलता है. इन ३७ सालों में उन्होंने अनगिनत कष्ट झेले हैं लेकिन क्या मजाल की एक दिन के लिए भी कॉलेज से गैरहाजिर हुए हों. मैंने उनको उदास तो कई बार देखा लेकिन हताश कभी नहीं. जेब और पेट भले ही खाली हों चेहरे की मुस्कान हरदम बनी रही.पत्नी और बच्चों को भी हरपर अपनी जरूरतों में कटौती करनी पड़ी लेकिन उन्होंने भी हमेशा उनका साथ दिया.आरपीएस में ऐसे लगभग डेढ़ दर्जन लोग थे जिनको वेतन नहीं मिलता था.पिछली पंक्ति में हैं की जगह थे का प्रयोग मैंने इसलिए किया है क्योंकि उनमें से २ अभाव और भूख से लड़ते हुए शहीद हो चुके हैं.एक बार नहीं दो-दो बार पटना उच्च न्यायालय ने उनको वेतन और बकाया देने का आदेश दिया.मौत आ गयी लेकिन वेतन नहीं आया.वेतन का इंतजार जिन्दगी को होती है जनाब मौत को नहीं.
मित्रों,अभी पिछले साल बीआरए बिहार विवि के रजिस्ट्रार की तरफ से कॉलेज के प्रधानाचार्य के पास पत्र आया कि इन लोगों को वेतन भुगतान शुरू किया जाए लेकिन बड़ी ही चालाकी से यह नहीं बताया गया कि किस मद से.लिहाजा फिर से गेंद को विवि के पाले में डाल दिया गया. अब रजिस्ट्रार साहब को ४ लाख रूपये चाहिए तभी वे फिर से कॉलेज में पत्र भेजेंगे मद को स्पष्ट हुए.मगर यह पैसा देगा कौन और कहाँ से? ४० साल की अवैतनिक गृहस्थी के बाद किसी के पास कुछ बचा ही कहाँ होता है साहेब बहादुर को नजराना देने के लिए.बूढ़े और जर्जर हो चुके जिस्मों में खून तक तो शेष नहीं वर्ना वही पिला दिया जाता.
मित्रों,तो मैं बात कर रहा था भगत चाचा यानि भगत चा की.भगत चा इन दिनों मृत्यु शैया पर हैं शर शैया पर तो १९८० से ही थे.उनको लीवर का कैंसर है जो अंतिम स्टेज में है.कुछ भी नहीं पच रहा.नसों में खून नहीं बचा जिसके चलते स्लाईन चढ़ाना भी मुमकिन नहीं.डॉक्टरों ने ३ महीने की समय-सीमा तय कर दी है.पहले से ही कर्ज में चल रही गृहस्थी अब और भी ज्यादा कर्ज में है.घर में सिवाय चंद बर्तनों और कपड़ों के पहले भी कुछ नहीं था और आज भी नहीं है. कभी जिस भगत चा को उनके शिक्षक सितारे हिन्द कहकर बुलाते थे वही भगत चा आज डूबता हुआ तारा हैं.६० साल की जिंदगी में ४० साल का भीषण संघर्ष अब समाप्ति की ओर है.भगवान का एक अनन्य भक्त अब भगवान से निराश होकर भगवान के पास जा रहा है.देखना यह है कि मौत पहले आती है या वेतन पहले आता है.देखना है कि विश्वास जीतता है या हारता है?देखना यह है कि क्या भगत चा भी बिना वेतन पाए ही ३ महीने में जिंदगी से रिटायर हो जाने वाले हैं वैसे नौकरी अब भी ६ महीने की बची है.देखना यह भी है कि चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी समारोह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेनेवाले ऊपर से नीचे तक आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे विवि प्रशासन का जमीर जागता है या नहीं. वैसे सच पूछिए तो मुझे तो इस चमत्कार की कोई उम्मीद नजर नहीं आती. बतौर ग़ालिब-

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

मौत का एक दिन मु’अय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती

जानता हूँ सवाब-ए-ता’अत-ओ-ज़हद
पर तबीयत इधर नहीं आती

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती

क्यों न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती

दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता
बू-ए-चारागर नहीं आती

हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती

काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’
शर्म तुमको मगर नहीं आती

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