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मित्रों,कई साल पहले एक दिन हम हाजीपुर कोर्ट परिसर में एक वरिष्ठ अधिवक्ता के पास बैठे थे। हमने जिला अदालतों भ्रष्टाचार पर चर्चा छेड़ दी। वकील साहब ने बताया कि सबसे कम भ्रष्टाचार जिला अदालतों में है,इससे कई गुना ज्यादा उच्च न्यायालयों में है और सबसे ज्यादा सर्वोच्च न्यायालय में। मैं सुनकर सन्न था। उन दिनों मेरा एक मुकदमा हाजीपुर कोर्ट में चल रहा था और हर तारीख पर मुझसे भी रिश्वत ली जा रही थी।
मित्रों,आश्चर्य होता है कि जब लिखित कानून एक है तो फिर अलग-अलग जज अलग-अलग और एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत फैसले कैसे देते हैं? थोक में अपराधियों को हाईकोर्ट कैसे जमानत देता जाता है और कैसे सुप्रीम कोर्ट जमानत को रद्द करता जाता है? पहले शहाबुद्दीन,फिर बिंदी,फिर राजवल्लभ,फिर टुन्ना जी पांडे,फिर रॉकी। लगता है जैसे पटना हाईकोर्ट बिहार के बाहुबलियों के लिए कोई पैकेज लेकर बैठा हुआ है। लगता है जैसे हाईकोर्ट के जजों का इस सिद्धांत में अटूट विश्वास है कि पाप से घृणा करो पापियों से नहीं या फिर मी लॉर्ड को लगता है कि बाहुबलियों को जेल में रखने से राज्य की कानून-व्यवस्था की स्थिति और भी खराब हो जाएगी। या फिर वे मानते हैं कि जंगलराज के शेरों को जंगल में स्वतंत्र रूप से विचरण और शिकार करने देना चाहिए।
मित्रों,लेकिन न्यायपालिका के लिए और भी ज्यादा हास्यास्पद स्थिति तब उत्पन्न हो जाती है जब एक-एक करके उन सारी जमानतों को सर्वोच्च न्यायालय रद्द करता जाता है।
मित्रों,सवाल उठता है कि ऐसी कौन-सी न्याय की मूर्ति पटना हाईकोर्ट में बैठी हुई है जो अपराधियों के ऊपर हद से ज्यादा मेहरबान है और क्यों? अगर सुप्रीम कोर्ट किसी खास हाईकोर्ट के फैसले को लगातार बदल दे रहा है तो निश्चित रूप से कहीं-न-कहीं कोई झोल है और यही सब वे कारण हैं जिनके चलते मैं वर्षों से मांग करता रहा हूँ कि न्यायपालिका की भी जिम्मेदारी निश्चित की जानी चाहिए और गलत फैसलों के लिए जिम्मेदार जजों के ऊपर अनुशासनात्मक व दंडात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। जहाँ तक बिहार सरकार का सवाल है तो जब लालूजी की पार्टी सरकार में होगी तो स्वाभाविक रूप से राज्य में बाहुबलियों के लिए,बाहुबलियों द्वारा और बाहुबलियों की ही सरकार होगी।
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