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चुनाव का बिगुल बज गया है .ऐतिहासिक तौर पर इस बार के आमचुनाव युद्ध की पृष्ठभूमि में हो रहे हैं”भारत माता की जय”,”वंदे मातरम” के साथ ही “पाकिस्तान मुर्दाबाद” के नारों के उद्घोष सड़क गली चौराहों पर गूंज रहे हैं।वर्तमान सत्ताधारी दल को भी ये परिदृश्य सुहा रहा है. भले ही चुनाव आयोग द्वारा राजदलों के लिए इस बार भी आचार सहिंता के औपचारिक दिशा निर्देश निर्गत कर दिए गए हैं। दुर्भाग्य है कि इन दिशा निर्देशों का अनुपालन होता दिखता नहीं है और न ही इन दोषियों के विरुद्ध चुनाव आयोग की तात्कालिक कार्यवाही होती है।
विषम परिस्थिति में आम चुनाव हो रहे हैं.युद्ध की पृष्ठभूमि है,सीमा पर भारत पाक संघर्ष है,आतंकियों की नापाक कार्रवाई का अंदेशा है और चुनावी प्रचार में पाक को खुली चेतावनी है- होश में रहो। साथ ही देश भक्तों का जय घोष उद्घोष है “भारत माता की जय”!
पुलवामा पर आतंकी हमले से पूर्व निश्चित ही संवेधानिक संस्थानों की स्वायत्ता, राफेल सौदे में भ्रष्टाचार,बदहाल किसान मजदूर बेरोजगारी के सवाल उठाकर प्रमुख विपछी कांग्रेस सहित विरोधियों ने सत्ताधारी दल को लगभग घेर ही लिया था।लेकिन बदली परिस्थितियों में एकाएक सत्ताधारी दल का प्रचार प्रतिद्वंद्वी दलों के लिए सिरदर्द बन गया है ,वे असहज अनुभव कर रहे हैं।
पुलवामा आतंकी हमले की जवाबी कार्रवाई में पाक स्थित बालाकोट में आतंकी ठिकानों कोहमारी सेना द्वारा ध्वस्त किये जाने से पुलवामा हमले के शिकार शहीदों के परिजनों और नागरिकोंकी छाती ठंडी हुई है तो देश में एकाएक राष्ट्रभक्ति का ज्वार उठा है।
देश के राजनीतिक दलों को खंडित देश की परिस्थिति अनुकूल लगती है.धर्म संप्रदाय जाति आधारित कटे छंटे देश के वोट की बंदर बांट का नाम है चुनाव।
कुछ प्रबुद्ध बेवजह आशंकित है,सवाल उठा रहे हैं कि क्या लोकतंत्र की परिकल्पना असफल हो गई?देश की संवैधानिक व्यवस्था अप्रासंगिक हो गई है?क्या देश को राजशाही रास आ गई है?राजा जो ईश्वर है।जिसके सिंहासन के पार्श्व में धर्मध्वजा लहरा रही है,सर्व शक्तिमान,सर्वोपरि !
50 वर्ष देश में शासन करने वाली कांग्रेस अथवा 10 वर्ष रही बीजेपी सरकार से प्रश्न है कि रोजी रोजगार शिछा चिकित्सा जैसी आवश्यक सुविधाये आधी आबादी से अधिक लोग-एकलव्य सरीखे निर्धन वंचित को सहज उपलब्ध क्यो नहीं हैं?बिना दवा-आक्सीजन से लोग क्यों मर जाते हैं।आबादी के सापेक्ष स्कूल-शिछक,अस्पताल-चिकित्सक उपलब्ध क्यों नहीं है?आयेदिन सीमा पर हमारे जवान कुर्बान हो रहे हैं,लेकिन देश के हजारों अन्नदाता हर साल कर्ज के बोझ तले आत्महत्या करने पर विवश क्यों हैं?
स्पष्ट तथ्य है कि बीते 70 साल में नागरिकों को मूलभूत अधिकार-सुविधायें तक उपलब्ध नहीं हो सकीं हैं।फिर नये चुनाव नये नारे और झूठे वादों के साथ हो रहे हैं।हमेशा की तरह नागरिक फिर उम्मीद से हैं कि जो होना अच्छा होगा।
अब देखना है कि २०१४ के चुनाव में यूपीए सरकार को बुरी तरह सबक सिखाने वाले देश के मतदाता वर्तमान एनडीए सरकार के शासन से कितने संतुष्ट हैं ?जनहित की कसौटी पर इस सरकार को परखने का समय आ गया है।आम चुनाव लोकतंत्र का पर्व नहीं,परीछा है।सरकार को भी अग्नि परीछा से गुजरना है।
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