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एक बार फिर गांधी व नेहरू

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अंग्रेज़ी साम्राज्य से देश को आजाद कराने में “कांग्रेस ” का मुख्य योगदान माना जाता है। देश में कांग्रेस एक ऐसे मोर्चे के रूप में उभर कर आई थी, जिसमें उस समय का “प्रबुद्ध ” वर्ग, प्रमुख व्यवसाई वर्ग,सभी धर्म,समुदाय के व हर वर्ग के लोग, देश को विदेशी आक्रान्ताओं से मुक्त कराने के उद्देश्य मात्र से एक जुट हुए थे। संगठन निस्वार्थ भाव से तन ,मन और धन से देश की स्वतंत्रता के लिए निछावर था। परिणाम स्वरूप स्वतंत्रता जैसे धैय को पाने लिए लोगों के बलिदान की एक लम्बी फेहरिस्त है।

आगे चल कर आंदोलन में “महात्मा गांधी ” जी ने “कृष्णावतार ” के रूप में कांग्रेस के झंडे को सम्हाला। महात्मा जी के नेतृत्व में लगभग सारा देश तन ,मन और धन के समर्पण के साथ उन के साथ एक जूट हो गया। इस संकल्प में निस्वार्त्ता के साथ राष्ट्रवादिता का प्रबल भाव था। परिणाम सामने आया। देश 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हो गया। विदेशियों का अधिपत्य समाप्त हो गया। अब हम थे, और हमारा देश था। हम अपने भाग्य विधाता स्वंग थे।

गांधी जी “भविष्य दृष्टा ” थे। उंन्हें युद्ध में विजय उपरांत होने वाले आनंद अतिरेक का अनुमान हो गया था। उंन्हें भान था, कांग्रेस में अति आत्मविश्वास से दम्भ के भाव पनपेगे, निरंकुशता पनपेगी , और इस के परिणाम निरिह जनता को भुगतना पड़ेगा। इन्हीं आशंकाओं वस गांधी जी ने कांग्रेस को समाप्त कर,भविष्य के लिए नए पार्टी स्वरुप का सुझाव दिया था। किन्तु इस सुझाव से सहमत हो पाना सरल नहीं था। अब “स्वेंग सत्ता ” का योग प्रारम्भ हो रहा था। कांग्रेस शब्द एक अमोध अस्त्र का रूप ले चूका था, जिसे पूरी तरह से जांचा और परखा जा चूका था। अतः गांधी जी एवं उनके विचारों को केवल देश की तमाम संवैधानिक संस्थाओं की दीवारों पर ही स्थान मिल सका।

कांग्रेस अब शासक दल बन चूका था। समय बीतता गया,कांग्रेस रूपी ब्याभ्य ईमारत के जीर्ण – शीर्ण अवषेशों को नया रूप मिलने लगा। जिन के पुरुषार्थ से कांग्रेस की ब्यभता रही ,गौरवशीलता रही, उन अवशेषों को दर किनार कर एक नया स्वरुप उभरा। यह कांग्रेस का परिवारवादी स्वरुप था। इस नए स्वरुप ने राष्ट्रीय सत्ता के मूलभूत तत्वों को अपने में समाहित कर लिया। अब आस्था और हित ने अपना अर्थ ही बदल लिया था।

आज विचारणीय प्रश्न है, की क्या भविष्य में “डिस्कवरी ऑफ इंडिया ” जैसी ब्यापक दृष्टि का पुनः लेखन किया जा सकेगा ? मुझे इस पर संदेह है, और संदेह इस हद तक है की मुझे लगता है की इस पुस्तक को पढ़ना ,और पढ़ कर समझ सकना भी शायद संभव नहीं हो सकेगा। बिना “हिंदी ” के क्या “हिन्द ” को समझ पाना संभव हो सकेगा ? वर्तमान में “राष्ट्रवाद ” एक पहेली बन गई है। इन तत्वों के अभाव में हम राष्ट्र को क्या दे सकेंगे? हम कैसे 125 करोड़ जन की जिम्मेदारी ले सकेंगे ?

जिस बनस्पति का अस्तित्व जमीन से जुड़ा नहीं होता, वह हवा में लटके गमले के टूटते ही प्राणहीन हो कर रह जाता है। समर्थवान की शोभा अलंकरण नहीं, उसका पुरुषार्थ होता है। आज की दिग्भ्रमिकता की स्थित में हमें मार्ग दिखने के लिए एक अदद गांधी व नेहरू की आवश्यकता फिर से आन पडी है।

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