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दुधारू गाय

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पूर्वी उत्तरप्रदेश एवं लखनऊ में, बिजली विभाग के द्वारा, अनियमित विद्दुत कनेक्शनो के विरूद्ध चलाये जा रहे, अभियानो की आज कल विशेष चर्चा चल रही है। उत्तरप्रदेश के श्रावस्ती जिले के जिला अधिकारी महोदय के द्वारा बिजली चोरी रोकने की सफल योजना की आज भूरि – भूरि सराहना की जा रही है,एवं इस कार्य के लिए उंन्हे सम्मानित भी किया गया। गोंडा जिले में,एक अधिषासी अभियंता महोदय को भी बिजली बिल के बकाया धनराशि के संग्रहण के लिए, सराहा भी गया एवं सम्मानित भी किया गया। बिजली चोरी रोकने के इसी क्रम में “छापे “के अभियानो को 15 – 15 दिनों पर दोहराया भी जाता रहा है। साथ ही बिजली विभाग ने और भी तमाम उपायों का श्रीजन किया, ता कि बिजली चोरी की पर्याप्त सूचना विभाग को मिल सके, और बिजली चोरी पर भरपूर अंकुश लगाया जा सके।
इन तमाम प्रयासों के परिणाम, निश्चित रूप से सकारात्मक ही रहे होंगे, पर प्रश्न उठता है की क्या संतोष जनक भी रहे ? इन प्रयासों के द्वारा हम ने छेत्र में कितने प्रतिशत बिजली की बचत की ? श्रावस्ती जिले के प्रयासों का उल्लेख तो समाचार पत्रों में विस्तार पूर्वक प्रकाशित हूआ था , किन्तु अन्य स्थानों पर चलाए गए अभियानों के क्या परिणाम रहे, इस का जिक्र कही भी पढ़ने को नहीं मिल सका। इस से क्या अर्थ निकला जाना चाहिए ? क्या इन अभियानों से श्रावस्ती जैसे परिणाम नहीं मिल सके?
इस प्रकार के सरकारी अभियानों के, सरकार के द्वारा कुछ मानक निर्धारित होते है। इंन्ही मानकों के अनुरूप इस प्रकार के अभियानों का संचालन होता है। अब वास्तविक धरातल पर इस प्रकार के अभियानों के क्या परिणाम रहे, यह हमारे आप के चिंतन का विषय होता है, सम्बंधित विभाग का नहीं। प्रायः इस प्रकार की प्रक्रिया में देखने को मिल जाता है, की इस प्रकार की “प्रक्रिया की चक्की में घुन तो पिस जाते है, पर गेहूँ नहीं पिस्ता “। पहले दिन के छापे के समाचार में ऍफ़ आई आर की सूचना पढ़ने को मिल जाती है, किन्तु बाद के शेष दिनों में इस प्रकार की सूचना पढ़ने को नहीं मिलती। छेत्र की बाकी समस्याओं को पूरी – पूरी निष्ठा एवं लगन के साथ “सेट्टल ” कर दिया जाता है।
इन परिस्थितयों में कभी – कभी यह आभास होने लगता है, जैसे बिजली विभाग में मूल प्रशासन के साथ – साथ एक और समांतर प्रशासनिक व्यवस्था का प्रचलन हो चला है। दूसरी प्रशासनिक व्यवस्था का सीधा सम्बन्ध उपभोगताओं की समस्याओं से होता है, और इस में मूल प्रशासनिक व्यवस्था भी हस्तछेप करने से परहेज कर जाता है। बकाया बिजली बिल का पैसा जमा करना हो , गलत बिजली बिल ठीक कराना हो ,नए मीटर लगने के बाद मीटर रीडिंग की प्रविष्टि हो या फिर इसी प्रकार अन्य अनेकों समस्याऐ। विभाग की कार्य प्रणाली इतनी जटिल है, की बिना किसी सहारे के विभाग से उपभोगता का काम हो सकने की संभावना बहुत छीन हो जाती है, साथ ही किसी भी काम के हो जाने की कोई समय सीमा का भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
आज कल कम्प्यूटर जनित बिजली बिलों को वास्तविक आकलन से, कम करके बनाने का विषय, रोज समाचार पत्रो में पढ़ने को मिल रहा है, जिस से विभाग को करोड़ों के घाटे का अनुमान भी लगाया जा रहा है। इसके अलावा बिल का कई गुना अधिक का बन जाना , कनेक्शन के बाद भी बिल का वर्षो न आना, बिना कनेक्शन के ही, बिल का आ जाना जैसे विषय तो आम बाते है। बिजली विभाग की लापरवाही द्वारा हुई गलतियों की सजा, उपभोगताओं को ही भुगतनी पड़ती है। इस प्रकार के भुक्तभोगी उपभोगता, इन समस्याओं से किस प्रकार निजात पाते है, यह तो किसी भुगतभोगी से ही पता लग सकता है।
हम बिजली का उत्पादन बड़ा कर उपभोगताओं को 24 घंटे बिजली पूर्ती करने की बातें करते है। वर्तमान परिस्थितियों में तो यह एक दिवा स्वप्न जैसा ही लगता है। यदि मान लिया जाय, की बिजली का उत्पादन अपनी आवश्यकता अनुरूप बढ़ भी गया, तो जिस बड़े हुए प्रवाह से हमें विद्युत आपूर्ति की जायगी, उससे भी तीब्र प्रवाह से व्यस्था में व्याप्त “छिद्रो ” से वह बिजली मुफ्तखोरों में बह जानी है, और हमारे हाथ आज की ही स्थित बनी रह जानी है। इस उपक्रम का कार्य “चलनी में पानी भरने ” जैसा ही होगा।
बिजली विभाग के निजीकरन का प्रस्ताव जब – जब उठा, कर्मचारियों ने भारी हंगामा खड़ा कर दिया, परिणामस्वरूप प्रस्ताव ठन्डे बस्ते में चला गया। इस परिप्रेक्छ में कल्पना की जा सकती है की – बिजली विभाग मानो एक “गाय” के मानिंद हो गयी है, जिसका दो भाईयों में बटवारा कर दिया गया। जिस में आगे का अर्थात मुँह का हिस्सा उपभोग्ता के हिस्से में आया, और पीछे का भाग अर्थात “थन” का हिस्सा कर्मचारियों के हिस्से में आ गया।

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