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आज कल कांग्रेस, भूमि – अधिग्रहण बिल को लेकर किसानो के हित की आड़ में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। इस संदर्भ में,एक मात्र उद्देश्य है, संसद की कार्यवाही को न चलने देना,जिससे देश भर में भरपूर प्रचार मिल सके, पूरे देश में तहलका मच जाय, और पिछले 10 वर्षो के मौन शासन से उपजे कुशासन के प्रभाव व् अरबों – खरबों के हुए घुटालों से जनता का ध्यान हटाया जा सके। आज देश की बदहाली के कारणों के मूल जनक कांग्रेसी ही है। कांग्रेस का दावा है, की वर्तमान सरकार द्वारा लागू की जाने वाली तमाम योजनायें उनकी ही है। इससे स्पस्ट हो जाता है, की आज किसान के बदहाली की जिम्मेदारी नौ माह की शासन ब्यवस्था की नहीं हो सकती, यह परिणाम है दशकों के अविवेकी शासन का। असमय वर्षा एवं ओला बृष्टि ने तो मात्र “नदी में पड़े भारहीन लकड़ी के टुकड़े को सतेह पर ला दिया है। ”
दैनिक जागरण में प्रकाशित श्री प्रदीप सिंह जी के लेख का उत्तर श्रीमान जयराम रमेश जी को अवश्य कर देना चाहिए। भूमि अधिग्रहण की शरूआत सिंह साहब के अनुशार 1948 में हीरा कुण्ड बांध से हुई,जिसकी नींव श्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा रखी गयी थी। इस बिल को उस समय न्यायिक प्रक्रिया से भी बाहर रखा गया था। इसी क्रम को श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने आगे बढ़ाया, और कहा की किसानों को अधिग्रहहित भूमि के मुवाबजे का भी अधिकार नहीं है, मात्र एक निर्धारित रकम ही दी जायगी। 1950 से 2012 तक करीब 4 करोड़ किसानों के परिवारो की जमीन का अधिग्रहण किया गया, जिसमे से 75% परिवारो को आज भी पुनर्वास का इंतजार है।
2005 में श्री मनमोहन सरकार ने एस ई जेड विधेयक को संसद से पास कराया । इस में एक लाख चौदह हजार किसानों की जमीन का अधिग्रहण हो रहा है। इस में प्रवधान किया गया की एक हजार से बड़े इस ई जेड की ७५% भूमि गैर औद्योगिगक कार्यो के लिए प्रयोग होगी, अर्थात इस प्रकार रियाल एस्टेट के कारोबार को पूरी – पूरी छूट दी गयी। राज्य सरकारों ने इस प्रावधान के अंतर्गत इमरजेंसी का प्रावधान कर भूमि का आवंटन रियाल एस्टेट को करना शूरू कर दिया, जिससे किसानों में भारी असंतोष ब्याप्त होने लगा, और इसका खामियाजा मोदी सरकार को आज भुगतना पड रहा है।
कांग्रेस ने भूमि अधिग्रहण को ले कर जो अनर्गल हंगामा खड़ा करने का प्रयास किया है, उसकी बाग़ – डोर उन्होंने अपने उपाध्यक्छ महोदय को सौप दी है। अब देखना यह है की वे किसी भी राजनैतिक कार्य के लिए कितने परिपक्व एवं गंभीर है। देश की जनता ने उन्न्हे मुख्यरूप से चुनाव प्रचार में ही देखा एवं सुना है, और इसी का परिणाम हमें, चुनाव परिणामों में भी देखने को मिला। वे इस बात को भली प्रकार से जानते है की “कांग्रेस ” उनकी विरासत है, और पार्टी के नेतृत्वा पर अंतिम एवं एक मात्र उनका ही अधिकार है। इस आत्मविश्वास के कारण शायद उन्हें अपनी जिम्मेदारीयों को गंभीरता से लेने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती। परिणामस्वरूप संसद में उनकी उपस्थित को उंगलियों पर गिना जा सकता है। संसद में हो रही गंभीर विषयों पर चर्चा को उंन्होंने अपने व्यक्तिगत कार्यो से अधिक महत्व न दे कर विदेश प्रवास को अधिक मह्त्व दिया। परिणामस्वरूप संसद में उनकी उपस्थित एवं उनके भाषण निष्प्रभावी ही रहे। इन कारणों ने यह आभाष करादिया की शायद उंन्हे न तो अर्थशास्त्र की जानकारी है,और न ही अपने पार्टी के इतिहास की साथ ही देश की समस्याओ से भी परे दिखाई दिए। हाँ संसद में इस बार बोल कर उंन्हो ने अमीर और गरीब के बीच वैमनष्य पैदा करने की जरूर कोशिश कर दी। शायद “बाँटो और राज्य करो ” का ब्रिटिश सूत्र ही सफलता का सबसे शार्टकट लगा होगा या फिर उनके परामर्शदाताओं को। किसान और उद्योगपति देश की अर्थब्यवस्था की नींव होते है,इन में वैमनस्य पैदा कराने का अर्थ देश की नींव में दीमक को प्राश्रय देने जैसा ही होगा।
देश की संसद में चर्चा का स्वरुप गंभीर होना चाहिए। यदि सत्ता पक्छ के निर्णयों पर प्रश्न उठते है, तो सत्ता पक्छ की जिम्मेदारी है की विपक्छ को हर हाल में संतुष्ट करे ,साथ ही विपक्छ से भी यह आशा की जाती है की वह “राष्ट्रीय ” हित को सर्वोच्च प्राथिमिकता देते हुए एक सकारात्मक दृष्टि कोण से चर्चा करे, ताकि राष्ट्र हित , राष्ट्र सम्मान के साथ – साथ संसद का भी सम्मान बढे।
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