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बिन गोपाल बेरण भई कुंजें …आखिर प्रेम का यह कैसा भाव है ..पिया बिन संसार सूना
लगता है प्रेमदीवानी मीरा कहती है की ” अंसुवन जल सींच सींच प्रेम बेल बोई ,अब तो
बेल फ़ैल गयी का करिहे कोई ” कबीर इस अद्वेत प्रेम को इन शब्दों में बया करते है ” ना
पल बिछड़े पिया हमसे ,ना हम बिछड़े पियारे से ,हमारा यार है हम में हमन फिर बेकरारी
क्या ….अद्भुत अभिव्यक्ति ..जिसमे कोई वियोग ..बिछोह नहीं – देहातीत प्रेम . देहिक
प्रेम में अपेछा है ..आसक्ति है तो दुःख-वियोग भी है . किन्तु प्रेमभाव जब गहन होता है तो
द्वेत गिर जाता है द्वन्द तिरोहित हो जाता हो और चहुओर -दसो दिशाओं से प्रेम की सुगंध
महकने लगती है . ” लाली तेरे लाल की जित देखू देखू उत लाल , लाली देखन में चली में
भी हो गयी लाल ” की भावना से अंग-अंग रोमांचित हो उठता है .
सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो ,प्यार को प्यार ही रहने दो कोई
नाम ना दो ..कवियों ने प्रेमभाव को भले ही अलग-अलग शब्दों में अभिव्यक्त किया
हैफिर भी प्रेम की व्याख्या अधूरी-अधूरी रह जाती है ..सूरज-चाँद-सितारे-नवग्रह जिस
आकर्षण से बंधे है विज्ञान उसे गुरुत्व आकर्षण का नाम देता है ..मानव भी अंतत प्रकृत
का अंश है ..आकर्षण-प्रेम उसका नेसर्गिक स्वभाव है . इश्वर प्रदत्त उपहार है प्रेम .
कवी नीरज भी कहते है ..” शोखियो में घोला जाए फूलो का शबाब ,उसमे फिर मिलाई
जाए थोड़ी सी शराब ,होगा जो नशा जो तय्यार वो प्यार है ..”
संत -महात्माओ ने भी प्रतिपादित किया है की प्रेम इश्वर है -इश्वर तक पुहुंचने
का मार्ग है . ,सबसे प्रेम करो ,जिस दिल में प्रेमभाव है वहा इश्वर का निवास है .
प्रकृति में भी प्रेम का आश्चर्यजनक विस्तार देखने को मिलता है . भवरे-कीट-पतंगे
कलियों-फूल से परागकण एकत्र कर परागण की क्रिया संपन्न करते है रंग-बिरंगे
फूल-पत्तिय-लतिका-वृछ का सोंदर्य -सुगंध आकर्षण स्वत: ही प्राणों में स्फूर्ति का संचार
कर अज्ञात परमशक्ति के प्रति प्रेम-भक्ति भाव से नतमस्तक हो जाता है . प्रेम की महत्ता
देखती ही बनती है जब भगवान् कृष्ण के नाम के साथ उनकी प्रेयसी राधा का नाम लिया
जाता है ,,राधा-कृष्ण इसी तरह राम भी सीताराम के उच्चारण में पूर्ण प्रतिष्ठित है .
भले ही देहिक प्रेम -आकर्षण ..प्रेम का बीजारोपण है –जो विस्तार लेता हुआ
शाश्वत प्रेम तक पहुँचता है . बीज से वृछ और आत्मा से परमात्मा तक की सतत यात्रा
..इसीलिए इस velentine day के अवसर से शुरुआत कीजिये ..प्रेम को विस्तार
दीजिये ..सबसे प्रेम करो यही उपासना है ..भक्ति है …
फिर दबेपांव बसंत भी गुदगुदाने लगा है ….सरस्वती की वीणा के तार ध्वनित हो
रहे हे..अद्वतीय संगीत हवाओं में ,मौसम में गूँज रहा है …मय बरसती है ,फिजाओं में नशा
तारी है ,मेरे साकी ने कही जाम उछाले होंगे ….अपने निकटतम प्रियतम .को पुकारो …और
रास-रंग में डूबजाओ …..देखो समूची पृकृति सज गयी है,संवर गयी है ..महारास का
आयोजन शरू हो गया है.प्रियतम बाहे फैलाए तुम्हारी प्रतिच्छा में है …….
सरकती जाय है रुख से नकाब आहिस्ता —आहिस्ता—-
मचलता आ रहा है आफ़ताब आहिस्ता —आहिस्ता—
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