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देश में मूर्तियों की जान ख़तरे में है। विभिन्न धर्म, जाति, विचारधारा से संबंधित मूर्तियों में बैचेनी है, वे डर और दहशत में हैं। लेनिन, पेरियार की मूर्तियों की इहलीला देखकर गांधीजी अपना चश्मा, लंगोटी, घड़ी बचाये-बचाये घूम रहे हैं तो बाबा साहेब आंबेडकर अपनी किताब के लिए चिंतित हैं, अभी-अभी केरल में गाँधी का किसी ने चश्मा तक तोड़ दिया है। यहाँ तक तो ठीक है। अब कौन उन्हें पढ़ना-लिखना है और देखने को भी अब क्या बाकी रह गया है।
कुछ स्वनामधन्य सिरफिरे एक-दूसरे से संबंधित मूर्तियों को ढूंढ ढूंढ कर निशाना बना रहे हैं, वे इन प्रतीकों के अंगभंग, नाक कान गर्दन तोड़ने या मिट्टी में मिलाने की कसम खाकर घर से निकले हैं। प्रतिकार में अंगभंग या गिरी हुई मूर्तियों के पैरोकार भी बदले की कार्यवाही में यही सांस्कृतिक कार्यक्रम बड़े उत्साह से चला रहे हैं। देश के “मूर्ति भंजक महोत्सव” की खबर विदेशों तक जा पहुंची हैं और चीन में आर्डर देकर बनवाई जा रही सरदार पटेल की मूर्ति भी कंपकंपा रही है, जो नये भारत की एकता अखंडता के प्रतीक कहे जाते हैं।
अपने देश में विकास की ये रफ्तार और दिशा देखकर देश विदेश में स्थापित मूर्तियां हैरान हैं। विकास परियोजना की विश्व महासंघ ने भूरि-भूरि टाईप प्रशंसा की है। इस प्रशंसा से देश के नेता, अखबार- टीवी चैनल वाले गदगद और अभिभूत हो रहे हैं, “ये देश है वीर जवानों का अलबेलों मस्तानों का ” जैसे राष्ट्रगौरव के गीत गुनगुना रहे हैं, बीच बीच में कई विज्ञापन भी चल रहे हैं। इस परियोजना के प्रचार-प्रसार के लिये कई कर्जदार सेठ -साहूकार राष्ट्रीय प्रेम से ओतप्रोत होकर बैंक से और कर्ज लेकर हजारों करोड़ों के पूंजीनिवेश की इच्छा व्यक्त कर रहे हैं -विकास के लिए?
भले ही मूर्तियां समझ रही हैं कि वे तो बेजान हैं, उन पर अत्याचार क्यों ? लेकिन ये पगली मूर्तियां नहीं समझती कि हिंदिया देश के लोग आस्तिक हैं, वे मानते हैं कण-कण में जीवन हैं, इसीलिए वे पूरे होशोहवास में ये हिंसा और पागलपन कर रहे हैं। भस्मासुरो की फौज आज भले ही उपयोगी है -लेकिन?
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