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जब मैंने टैक्सी में बम रखा और पकड़ा गया!

बी एस पाबला
बी एस पाबला
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यह वाक्या 25 वर्ष पहले, 1985 के उन दिनों का है जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जघन्य हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन चुके थे। कथित सिक्ख आतंकवाद लगभग चरम पर ही था। आतंक फैलाने के लिए, उन दिनों पूरे उत्तर भारत में ‘ट्रांज़िस्टर बम’ का इस्तेमाल बहुत किया जा रहा था। कई मौतें हो चुकीं थीं। दहशत की स्थिति बनी हुई थी। ऐसे माहौल में, आवश्यक प्रशिक्षण के बाद मेरी नई नई नौकरी थी और पहले ही सप्ताह हम तीन लोगों को देहरादून स्थित भारत सरकार के एक संस्थान में एक माह के विशिष्ट प्रशिक्षण हेतु भेज दिया गया। संस्थान का नाम तो अब याद नहीं किन्तु पता था B-15, मोहिनी रोड।

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शनिवार, 6 जुलाई को एकाएक मिले आदेश के बाद हम तीनों अलग अलग ट्रेनों से, दिल्ली पहुँचे और फिर बस से देहरादून। 7 जुलाई की शाम तक मैं पहुँच चुका था, साथियों का कोई पता ठिकाना नहीं था। अगले दिन वे संस्थान में मिल ही जाएँगे, यही सोच कर सड़क पर टहलते हुए अन्जान से शहर को निहार रहा था कि सामने सिनेमा थिएटर पर फिल्म ‘गुलामी’ का पोस्टर दिख गया। उन दिनों सिनेमा का खूब उन्माद रहता था, हम भी चल दिए आनंदित होने।

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देहरादून की बातें फिर कभी। अभी आपको बताता हूँ वह बात जो बताने आया था। देहरादून में रहते हुए पता चला कि पहाड़ों की रानी के नाम से मशहूर हिल स्टेशन ‘मसूरी’ पास ही में है। पता किया गया कि कितना पास है, बताया गया कि 31 किलोमीटर। फिर क्या था। एक टैक्सी कर चल दिए मसूरी। पूरी राह कुदरत के नज़ारे मोह रहे थे। जहाँ टैक्सी रूकी उस जगह का नाम बताया गया ‘लाइब्रेरी’।

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होटल दिलवाने वालों ने तो जैसे धावा ही बोल दिया। हम तीनों मित्र रूके उसी लाइब्रेरी के पीछे, लकड़ी के बने, हरे रंग से पेंट किए गए एक होटल में। वह ‘पंडित जी का होटल’ कहलाता था। मुझे हल्का सा याद है शायद उसके सामने Cecil Hotel नाम वाली एक इमारत दिखती थी।

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उस होटल में किसी तरह का पंखा नहीं था। हमें बताया गया कि ज़रूरत ही नहीं पड़ती। हालांकि 10 वर्ष बाद 1995 में मोटरसाईकिल से उत्तर भारत भ्रमण पर गया तो पंखे लगे देखे मैंने और अब बताते हैं कि वहाँ एयर कंडिशनर लग गए हैं!

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उड़ते हुए बादलों के बीच महसूस करते हुए वह शाम बीत गई। अगले दिन, वहाँ के स्टाफ की सलाह पर, सबसे पहले केम्पटी जलप्रपात देखने का निर्णय लिया गया। उस समय मेरे पास Canon का एक आटोमेटिक, मोटोराईज़्ड, फिल्म रोल वाला कैमरा था। जिसका उपयोग बारी बारी से हम तीनों मित्रों ने, अपने अपने उद्देश्यों के लिए किया! पहाड़ों पर, सडक से नीचे, कच्ची पगडंडी से उतरते हुए काफी नीचे स्थित जलप्रपात का बेहद प्राकृतिक खुशनुमा माहौल मेरी स्मृति में अब तक है।
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वापस लौट कर जब हम ऊपर सड़क पर पहुँचे तो सामने सड़क के किनारे की नाली में लगातर बह्ते एकदम स्वच्छ पानी के बीच कोल्ड ड्रिंक्स की लम्बी कतारें देख कर जरा अचरज हुया। मैंने अंदाज़ लगाया कि इन्हें धोने के लिए रख छोड़ा गया होगा। लेकिन हैरानी हुई, जब पता चला कि यह बहता पानी इतना ठंडा रहता है कि फ्रिज नाम के किसी यंत्र की ज़रूरत ही नहीं!
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हमने भी बहते निर्मल पानी में मुँह हाथ धोने की कवायद की। हल्का फुल्का नाश्ता ले कर जब हम टहलने के लिए सड़क पर कुछ आगे बढ़े तो एकाएक अभिनेता अमज़द खान जैसी काया वाला एक पुलिस कर्मी, पीछे से आवाज़ देता हुया अपना डंडा हमारे सामने तान कर खड़ा हो गया। डरते डरते कारण पूछा तो उसने अपने अंदाज़ में कहा -अभी पता चला जाएगा। एक आदमी को इशारा कर उसने बुलाया और उसे कुछ कहने का आदेश सा देते हुए अपना सिर झटकाया।
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उस बुलाए गये व्यक्ति ने बड़े रहस्यमय अंदाज़ में सीधे मुझसे ही धीमे से स्वर में पूछा ‘सा’ब जी! आपका कोई सामान छूटा है क्या?’ मैंने एक क्षण याद किया और ना में सिर हिला दिया। उसने फिर कहा ‘शायद आपके किसी दोस्त का कोई सामान हो ..’ झट से मेरे साथियों ने भी इंकार कर दिया। तब तक वह पुलिस वाला दो कदम आगे बढ़ आया था और वह व्यक्ति दो कदम पीछे खिसक चुका था। मन किसी आशंका से घबड़ाने लगा।
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अब की बार पुलिस वाले ने अपना ड़ंडा, स्लो मोशन की तलवार बाज़ी के अंदाज़ में घुमाते हुए कहा ‘एक बार और सोच लीजिए, फिर मत कहना कि हमें पूछा नहीं गया’। डूबते हुए दिल की धड़कनों के साथ मैंने अपने साथियों की ओर देखा। वे दोनों तो खुद मेरी ओर कातर निगाहों से देख रहे थे। मामला समझ ही नहीं आ रहा था। पीछे खिसक चुके आदमी के पीछे चार-पांच लोग आ जुटे थे और हमारी ओर ऐसे देख रहे थे जैसेहम मंगल ग्रह से आए हों।
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उस व्यक्ति ने संकेत सा देने की कोशिश की। शा’ब जी शायद आपके पास कोई ट्रांजिस्टर, कैमरा या हैंडबैग जैसा कुछ रहा हो। दिमाग में कौंधा ‘कैमरा’। लेकिन वह मेरे हाथ में तो है नहीं। मैं चिल्लाया -अरे विनोद, कैमरा कहाँ है, जो मुँह हाथ धोने के पहले तुम्हें सौंपा था। सकपका कर वह हकलाते हुए बोला -अरे यार, मैं भी मुँह हाथ धोने लग गया था और कैमरे को पास ही की (एम्बेसेडर) टैक्सी की डिग्गी के ऊपर रख दिया था।
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पुलिस वाला हमको हांकने के अंदाज़ में अपना डंडा हिलाते हुए कुछ दूर खड़ी एक टैक्सी के पास ले गया और उस बुलाए गए व्यक्ति को इशारा किया। वह था टैक्सी का ड्राईवर्। उसने डिग्गी खोली और तुरंत दूर खड़ा हो गया। मेरी निगाह स्टेपनी के रिम पर पड़े अपने कैमरे पर पड़ी। उसी समय दूर खड़ा पुलिस वाला बोल पड़ा -यही है कैमरा? मैंने झपट कर उठाया कैमरा, ध्यान से देखा मेरा ही था। मेरे हामी भरते ही ड्राईवर और पुलिस वाला पास ही आ कर खड़े हो गए।
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उस ड्राईवर ने स्वीकारा कि लावारिस से पड़े कैमरे का लालच आ गया था, उठा कर रख तो दिया डिग्गी में, लेकिन टैक्सी सवार लोगों ने उसे चेताया कि यह कैमरा हम उस ‘सरदार’ के हाथ में देख चुके हैं जो अब ‘खिसक’ रहा है। क्या पता उसकी ‘नीयत’ क्या हो? तब ड्राईवर की घिग्घी बंधी और उसने पुलिस वाले को सूचित किया।
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शानदार तस्वीरों के साथ मुझे मेरा कैमरा वापस मिल गया, तसल्ली हुई। लेकिन आज भी जब हम तीनों आपस में मिल बैठते हैं तो खूब ठहाके लगते हैं।
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कैसा रहा मेरा ‘बम’ रखना और ‘पकड़ा’ जाना?

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