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कृषि समझौते का सच

अर्थ विमर्श
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अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान कृषि पर महत्वपूर्ण समझौता हुआ। इसके तहत हरित क्रांति से आगे बढ़कर सदाबहार क्रांति की शुरुआत करने पर सहमति बनी ताकि दुनिया के माथे पर से भुखमरी के कलंक को मिटाया जा सके। लेकिन इस समझौते पर खुश होने से पहले हमें इस बात का विश्लेषण करना होगा कि सदाबहार क्रांति की जरूरत ही क्या है? आज विश्व में 11 अरब लोगों के लिए पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन हो रहा है जबकि दुनिया की आबादी सात अरब से भी कम है। इस बहुतायत के बावजूद लगभग सौ करोड़ लोग भूखे सोते हैं। इससे स्पष्ट है कि समस्या उत्पादन के मोर्चे पर न होकर वितरण के मोर्चे पर है। दरअसल, विकसित देशों ने जिस आधुनिक कृषि क्रांति की शुरुआत की वह पूंजी व तकनीक प्रधान थी। इसमें कृषि कार्य में लगी जनसंख्या को व्यापक सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर शहरों में बसा दिया गया।


आगे चलकर तीसरी दुनिया के देशों ने भी इसी कृषि रणनीति को अपनाया जिसे हरित क्रांति का नाम दिया गया। इसमें रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के बल पर अधिक उपज देने वाली बाहरी किस्मों को थोपा गया जैसे पंजाब में धान की खेती। चूंकि हरित क्रांति का स्वरूप पूंजी व तकनीक प्रधान था इसलिए छोटे व सीमांत किसान इसे बड़े पैमाने पर नहीं अपना सके। फिर हरित क्रांति अपना कमाल उन्हीं क्षेत्रों में दिखा पाई जहां कृषि की ढांचागत सुविधाएं विद्यमान थीं। इसका दुष्परिणाम अंतरक्षेत्रीय और अंतरफसल असमानता के रूप में सामने आया।


चूंकि हरित क्रांति बाहरी आदानों पर आधारित थी इसलिए बाजार और कृषि का अंतरसंबंध मजबूत हुआ। अब किसान उन फसलों को प्राथमिकता देने लगे जिनका बाजार में अच्छा मूल्य मिलता हो। उदाहरण के लिए भारत में अनाज उत्पादन में अखाद्य फसलों की भागीदारी बढ़ती जा रही है क्योंकि इनमें मुनाफे की अच्छी संभावनाएं रहती है। इस प्रकार पेट के लिए नहीं, बल्कि बाजार के लिए खेती होनी शुरू हो चुकी है। दरअसल विकसित देश जिस सदाबहार क्रांति का नारा लगा रहे हैं वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा नियंत्रित होगी। विकसित देशों के कृषि उत्पादन, वितरण आदि पर आधिपत्य जमा चुकी भीमकाय एग्रीबिजनेस कंपनियां अब विकासशील देशों की खेती-किसानी को अपने कब्जे में लेने की मुहिम में जुटी हुई हैं। हाइब्रिड-जीएम बीज, रासायनिक उर्वरक व कीटनाशकों के बल पर कंपनियां बाजार केंद्रित खेती को बढ़ावा देती हैं। इन कंपनियों को संबंधित देशों से भारी अनुदान मिलता हैं। फिर उत्पादों के निर्यात के लिए भी सब्सिडी दी जाती है। पहले तो ये कंपनियां अपने सस्ते उत्पादों से बाजार को पाटकर स्थानीय किसानों को खेती-किसानी से दूर करती हैं, फिर मुनाफा कमाने की मुहिम छेड़ देती हैं।


स्पष्ट है आयातित खाद्य पदार्थों के बल पर अधिक दिनों तक खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकेगी। एग्रीबिजनेस कंपनियां अब कृषि भूमि खरीदकर खेती भी कराने लगी हैं। पिछले तीन वर्षों में एशिया-अफ्रीका-लैटिन अमेरिका में लाखों हेक्टेयर उपजाऊ जमीन की बिक्री हुई है या पट्टे पर ली गई है। इससे स्थानीय लोग जल-जंगल-जमीन से बेदखल हुए। इस प्रकार उगाकर खाने वाला समुदाय धीरे-धीरे खरीद कर खाने पर निर्भर होता जा रहा है। लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के निजीकरण और सामाजिक सुरक्षा के अभाव में तीसरी दुनिया के अधिकांश लोगों के लिए यह संभव नहीं है कि वे बाजार से खरीद कर खा सकें। उदाहरण के लिए भारत में भंडार घर अनाज से भरे हैं इसके बावजूद लोगों को पेट भर खाना नसीब नहीं हो रहा है। सच्चाई यह है कि दुनिया के माथे पर से भुखमरी का कलंक तभी मिटेगा जब किसानों की भागीदारी वाली कृषि उत्पादन रणनीति लागू की जाए। यह तभी संभव होगा जब ऐसी कम लागत वाली कृषि तकनीक का विकास हो जिसे बहुसंख्यक किसान अपना सकें।


Source: Jagran Yahoo

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