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वह किस्सा सुना होगा आपने कि एक बेवकूफ खरगोश यह सोच कर डरता हुआ भागता रहता है कि आसमान गिर रहा है. सबको आगाह करता जाता है “भागो-भागो आसमान गिर रहा है”. कुछ ऐसा ही है यह मंदी का भूत. जिसे देखो वही आगाह कर रहा है कि भाई, यह मंदी का पहला फेज है. बहुत जल्द ही इस देश में भी मंदी आने वाली है. बस फिर क्या, ये डरावना भूत रोज का सच बन जाता हो जैसे. नौकरी पर जाओ तो डर कि कहीं आज हमारा आखिरी दिन तो नहीं. सबके चेहरे पर इस भूत का डर दिखाई देता है. एक मजेदार फर्क जो रिसेशन और डिप्रेशन में है, वह यह कि जब आपके पड़ोसी की नौकरी जाए तो वह रिसेशन है और जब आपकी जॉब जाए तो वह डिप्रेशन है. मिडिल क्लास लोग जो प्राइवेट कंपनियों में काम करते हैं कभी इस डर से बाहर ही नहीं निकल पाए.
हमारे देश की अर्थव्यवस्था की मुसीबतें भी कम नहीं हैं और उसमें फंसे हम आम आदमी! सोने की उछाल और चांदी की चमक से दूर भी रहें तो ये प्याज और टमाटर का भाव हमें रुलाता रहता है. उसपे रुपए का यूं गिरना और भी सहमा गया. बच्चों को विदेश में पढ़ाने के सपने तो काफूर ही हो गए. कहां जुटा पाएंगे हम एक डॉलर के बदले 70 रुपया.
सरकार की गलत और कमजोर नीति हमेशा हमें दगा दे जाती है. उसपे ये विदेशी निवेशक भी तो अप्रवासी पंछियों की तरह आते-जाते रहते हैं. आयात प्रभावित होता है, सेवा और रोजगार प्रभावित होता है और साथ में बढ़ जाता है इस भूत का डर. कमजोर रुपए ने कच्चे तेल, उर्वरक, दवाएं और लौह अयस्क, जो बड़ी मात्रा में भारत में आयात होता है को महंगा बना दिया है. ये पहले ही हमारे लिए सोना खरीदने के बराबर था अब तो बस लगता है कि देखकर ही काम चलाना पड़ेगा. चलो मान लेते हैं कि एक बार यह हमारी पहुंच में आ भी जाता है तो उसके लिए नौकरी का हमारी झोली में होना जरूरी है. अगर उसी के खोने का डर सताए तो इस भूत को कौन भगाए. सरकार का खजाना खाली हो रहा है और वह फिर से पश्चिमी देशों के आगे अपना रोना रोएगी. पर जब हमारा घर खाली होगा, डिविडेंड कम होगा, ब्याज दर बढ़ेगा और चीजें पहुंच से बाहर हो जाएंगी तो हम किसका मुंह देखेंगे.
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2007 के मध्य में आवास बुलबुले के फूटने के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक गंभीर मंदी के दौर में प्रवेश किया. जून 2009 तक तो ये मंदी उसे निगल ही गई. भारत को तो इसकी परछाई भर छूकर निकली थी लेकिन यहां भी कंपनियों को जैसे हमें धक्का देकर निकालने का अधिकार मिल गया. हमने जोर से दरवाजा बंद करके कहा की मंदी, तुम्हारा यहां स्वागत नहीं है फिर भी उसकी हवा हर रुकावट को पीछे छोड़ यहां चुपके से घुस ही आई. कर्मचारियों को मंदी के नाम पर ऐसे छांटा जा रहा था जैसे वे कोई बहुत बड़ा बोझ हों. डर इतना बड़ा था कि कोई प्रमोशन न मिलने, सैलरी नहीं कटने पर उसका भगवान को धन्यवाद देता और शाम में वह घर भी इस खुशखबरी के साथ जाता कि कल भी वह ऑफिस जाएगा.
वक़्त गुजरा और यह डर भी गुजर गया. जैसे ही हम चैन की सांस लेने वाले थे कि फिर वह आवाज आई कि हम मंदी के पहले दौर में हैं. फिर से वो भूत वापस आ रहा है हमें डराने के लिए.
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