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भारतीय अर्थव्यवस्था के जो हालात हैं इसके परिणामों की ओर जाएंगे तो बहुत बुरे संभावित परिणाम नजर आते हैं. एक प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियां या तो कमजोर साबित हुई हैं या बुरी तरह असफल. 11 फीसदी की जीडीपी ग्रोथ छूने की जुगत में हम सीधे 5 फीसदी जीडीपी ग्रोथ पर पहुंच गए. 2004 में जीडीपी जब 5.5 फीसदी पहुंचा तो उम्मीद की जा रही थी आगे के वर्षों में यह स्थिति सुधर जाएगी. लेकिन स्थिति सुधरने की बजाय और बिगड़ गई. 2012 में यह विकास दर (जीडीपी ग्रोथ) 5.5 से घटकर 5.3 हो गई. 1991 के बाद यह अब तक की सबसे कम विकास दर थी. 2012 के बाद की वह स्थिति आज ठीक होने की बजाय लगातार खराब हो रही है.
अर्थव्यवस्था की घटती विकास दर के लिए कोई एक मानक जिम्मेदार नहीं ठहराए जा सकते. इसके कई कारक हैं. 2008 की आर्थिक मंदी का भारत पर कोई खास असर नहीं दिखा तो एक बार को ऐसा माहौल बन गया कि भारतीय अर्थव्यव्स्था ने उस स्थिति को छू लिया है जब हम मजबूत अर्थव्यवस्था होने का दावा कर सकते हैं. इसका सारा श्रेय मनमोहन सिंह की अगवाई को गई लेकिन उसके बाद अचानक जब अमेरिका और ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के साथ विश्व अर्थव्यवस्था संभलने लगी, हमारी अर्थव्यवस्था औंधे मुंह गिर पड़ी. इसका दोष भी लेकिन इन्हीं अर्थशास्त्री की आर्थिक नीतियों को जाती है. यूपीए की मनमोहन सिंह की सरकार और भारत में 2012-2013 की आर्थिक मंदी पर एक नजर डालते हैं.
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मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियां हमेशा विदेशी निवेश को बढ़ावा देने की रही हैं. 1991 की अर्थिक मंदी में भी जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बनाए गए थे तो आनन-फानन में अंतराराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज लेकर सुधारों के उपाय शुरू कर दिए गए. पर सुधार के उन उपायों में केंद्र में जो रहा वह था विदेशी व्यापार को भारतीय बाजार में बढ़ावा देना. 1991 में तीन साल वित्तमंत्री के रूप में रहकर मनमोहन सिंह ने इसे बखूबी अंजाम दिया. पर कांग्रेस कार्यकाल की सत्ता से दूरी ने इस व्यापार व्यस्था को वहीं रोक दिया. 2004 में सत्ता में वापसी के बाद संयोग से मनमोहन सिंह ही प्रधानमंत्री बने. मनमोहन सिंह ने अपनी आर्थिक नीतियों के तहत वापस विदेशी निवेश को भारतीय बाजार की ओर आकर्षित करने के लिए कई सुधारात्मक कदम उठाए. एफडीआई आदि जैसी कई लाभकारी योजनाएं विदेशी व्यापारियों को भारत में निवेश के लिए प्रोत्साहित करने के लिए शुरू की गईं. नतीजा जो दिखा वह वह बुरा नहीं दिख रहा था. हर चीज का प्राइवेटाइजेशन हो रहा था. भारत में गाड़ियों के उपयोग से लेकर बिजली के उपयोग तक हर चीज बढ़ी. कूलर, फ्रिज, टीवी, केबल, कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल जैसी चीजें हर घर की जरूरत बन गई.
इस दौर तक तो सबकुछ सही था. विदेशी निवेशकों के भारतीय बाजार में आने से भारत अचानक तेजी से विकास करता प्रतीत होने लगा. लेकिन इसके दूरगामी परिणाम से तभी हम अंजान थे. जब फॉरन निवेशक भारतीय बाजार में रुचि ले रहे थे तो यह वह दौर था जब विश्व बाजार मंदी की ओर अग्रसर था. क्योंकि विकासशील भारत अभी भी विश्व बाजरों से दूर था तो यहां उस मंदी के प्रभाव नहीं थे. अत: उन निवेशकों के लिए भारतीय बाजार तब एक अच्छा विकल्प था और वे आए. उन निवेशकों के लिए यहां आने से अन्य विकल्प बंद नहीं हुए थे लेकिन भारतीय बाजार में यहां के आंतरिक (देशी) उद्योग-धंधों को बहुत नुकसान पहुंचा. परिणाम यह हुआ कि इस एक दशक में दस लाख से अधिक उद्योग-धंधे नष्ट हो गए. इसका नुकसान कितना था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1998 में करीब 6 प्रतिशत की बेरोजगारी छलांग लगाकर सीधे 15 प्रतिशत पहुंच गई. बड़े-उद्योग धंधों के आने से विदेशी मुद्रा बढ़ा हो लेकिन छोटे उद्योग-धंधे वाले इन कामगारों को इससे फायदे के बजाय नुकसान हुआ. मॉल कल्चर बढ़ा लेकिन इससे फुटकर विक्रेताओं को बड़ा नुकसान हुआ. परिणाम हुआ कि प्रति व्यक्ति आय घटा.
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अब का दौर जिसकी तुलना 1991 की भारतीय आर्थिक मंदी के दौर से की जा रही है कुछ उन्हीं आर्थिक सुधारों की नीतियों का दुष्परिणाम है. दरअसल अब जब वैश्विक मंदी का दौर लगभग खत्म हो चुका है और अमेरिका-ब्रिटेन भी अपनी अर्थिक नीतियों की समीक्षा करते हुए निवेशकों के लिए लाभ की योजनाएं शुरू कर रहा है, मनमोहन की अर्थिक नीतियां निवेशकों के लिए उससे कम लुभावनी साबित हुई हैं. कई जगह सरकारी बंदिशें हैं और निवेशक वहां शर्तों से बंधा खुद को पाते हैं. अत: विदेशी निवेशकों के भारतीय बाजार से पलायन के बाद भारतीय मुद्रा पर भी असर दिख रहा है. कुल मिलाकर मनमोहन सिंह की विदेशी निवेश को बढ़ावा देने की वे नीतियां लाभकारी कम और नुकसानदायक ज्यादा साबित हुई हैं. हालांकि यह परिणाम संभावित था लेकिन अगर मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियां थोड़ी दूरदर्शिता के साथ अपनाई गई होतीं तो शायद आज हम इस घोर आर्थिक संकट का सामना नहीं कर रहे होते.
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