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बड़ी पुरानी कहावत है ‘जो गलती करता है, उसका भुगतान भी वही करता है’. पर हमारे देश में यह बात लागू नहीं होती. पता चलता है गलतियां कोई और कर रहा है उसका भुगतान कोई और कर रहा है. भारत जहां त्यौहारों के मौसम में देश का कोना-कोना त्यौहारी हो जाता है. कारोबारी से लेकर फुटपाथ पर रहने वाला तक हर कोई त्यौहारों के मौसम में त्यौहारी रंग में रंगा नजर आता है सरकार की कारगुजारियों की सजा आम जनता को भुगतना पड़ सकता है.
एक बार फिर रेलवे ने किराया और अन्य मदों में बढोत्तरी कर दी और एक बार फिर इसने आम आदमी जो कभी महंगाई, तो कभी गिरते रूपये के मूल्य में उलझा नजर आता है, के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं. इस पल-पल बदलती अर्थव्यवस्था को देखते हुए भले ही इसने अपनी इच्छाएं सीमित कर ली हों पर शायद सरकार इसपर बोझ लादते थकती नहीं जान पड़ रही है. रोटी, कपड़ा और मकान के अलवा आज हमारी एक और आधारभूत जरुरत है और वह है यातातात, शायद सरकार यह भूल गई है.
अंग्रेज भारत की संपदा भले लूटकर गए लेकिन रेल उन्होंने एक तोहफे के रूप में जरूर दिया जो आज आम आदमी की लाइफलाइन बन गई है. सरकार की उलझी नीतियों की वजह से यह हमेशा घाटे का सौदा रहा और इसी घाटे की चपत के नाम पर बार-बार आम आदमी की जेबें खाली करने की नीतियां लाता रहा. भारतीय रेल के इतिहास में कई लोग हंसोड़ नेता लालू प्रसाद यादव का योगदान अविस्मरणीय मानते हैं जिन्होंने आम आदमी का मजाक नहीं उड़ाया. उनका मानना है कि इस उद्देश्य को पाने का उनका तरीका कितना भी टेढ़ा-मेढ़ा हो पर उन्होंने न केवल रेल को असीमित लाभ का भागीदार बनाया बल्कि गरीबरथ जैसी ट्रेन को चालू कर आम आदमी को यह एहसास भी दिलाया कि रेल कंपार्टमेंट में आरामदायक सफर का मजा वे भी ले सकते हैं. पर इस मदमाते हठी को संभालना सबके बस की बात नहीं. आज जब वापस सरकार को नुकसान भरपाई का रास्ता नहीं सूझ रहा तो आम आदमी की जेबें कट रही हैं. शायद उन्हें लगता है कि यात्री भाड़े में वृद्धि कर वह अपनी गलतियां सुधार लेगी.
शायद यही कारण रहा हो कि इस साल रेल भाड़े में एक नहीं बल्कि दो बार बढ़ोत्तरी की गई. रेल बजट 2013-14 के आने से पहले भी जनवरी में भाड़े में 15% की वृद्धि की गई थी जो अप्रैल में 5.7% और बढ़ा दी गई. शायद यह हिसाब-किताब भी इनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा तो तीसरा निशाना अब शताब्दी और राजधानी जैसी ट्रेनों पर है. इस माह इन ट्रेनों के यात्री भाड़े में 2% की वृद्धि की गई है. बहाना भी रेल में परोसे जाने वाले खाने का लिया गया है और वक्तव्य यह कि आम आदमी इससे प्रभावित नहीं होगा. भाई प्रभवति होगा भी कैसे..आप उन्हें गरीब रथ से उपर सोचने का मौका देंगे तब तो. वह तो बेचारा राजधानी के स्लीपर क्लास की यात्रा करके भी खुश हो जाता पर आपने तो उसे भी नहीं बख्शा.
कल तक बिजली और डीजल के बढ़ते दाम का बोझ सिर्फ घर और गाड़ियों में महसूस करते थे पर अब यह बोझ अप्रतक्ष्य रूप से उन लोगों पर भी आ पड़ा है जिनके पास अपनी गाड़ियां नहीं क्योंकि इस बढ़ते हुए भाड़े की मुख्य वजह यही दो कारक हैं जो अब पब्लिक ट्रांसपोर्ट को भी निगलने को तैयार है. 7.3% डीजल और 16% बिजली वृद्धि का वित्तीय बोझ आम आदमी की जेबों पर आ पड़ा है. एक अनुमान के मुताबिक रेलवे को अगले छह माह में वृद्धि हुई ऊर्जा और इनपुट लागत की वजह से 1200 करोड़ रुपये का बोझ उठाना पड़ेगा. संशोधित यात्री किराए में चालू वित्त वर्ष के शेष महीनों में रेलवे को 420 करोड़ रुपये का अतिरिक्त राजस्व मिलेगा और ट्रांसपोर्ट की वृद्धि हुई भाड़ा टैरिफ से 790 करोड़ रुपये कमाने की उम्मीद है.
पर इन सबके बीच उलझा सा आम आदमी ठगा महसूस कर रहा है. महंगाई के नाम पर वह यूं भी यह सस्ते की उम्मीद नहीं कर सकता लेकिन त्यौहारों के मौसम में सरकार के इस फैसले ने उन्हें निराश जरूर किया है. दीवाली के अवसर पर अपने परिवार से दूर दूसरे शहर और राज्यों में रह रहे लाखों यात्री रेल के इस सफर से दोस्ती करते हैं. टिकट मिलना पहले ही मुश्किल है अब बढा हुआ किराया भी उन्हें रुलाएगा. त्यौहारों की तो बात ही मत कीजिए जब सरकार ही जेब काट रही हो तो आम आदमी बेचारा किस-किस तरह अपनी जेब कटने से बचाएं. खाने से लेकर यात्रा हर चीज महंगी. आम आदमी जाए तो जाए कहां.
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