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गाँव शब्द लिखते, पढ़ते, सुनते ही मस्तिष्क में मिट्टी व छप्पर के घरों, कच्ची सड़कों, बड़ी-बड़ी गाछियों के चित्र उभरने लगते हैं. सरकारी अधिकारी गाँवों में जाना नहीं चाहते. बैंक अपनी ग्रामीण शाखा को बोझ समझती है और वहाँ कार्यरत कर्मचारी अपनी पोस्टिंग को सज़ा के तौर पर देखते हैं. यहाँ तक कि गाँवों से निकल सरकारी नौकरी करने वाले युवाओं की पोस्टिंग अगर गाँवों में नौकरी करनी पड़ती है तो वो अपने करम को कोसते आसानी से दिख जाते हैं. लेकिन हमारे देश में कुछ ऐसे गाँव भी हैं जहाँ अपनी शाखा खोलने के लिए बैंक लालायित रहते हैं. गुजरात के ये गाँव बालदिया, माधापर और केरा हैं.
बालदिया
बालदिया गाँव गुजरात के भुज में बसा है जिसमें करीब 1,300 परिवार रहते हैं. लेकिन कयास लगाये जाते हैं कि इस गाँव के बैंकों में जमा राशि तकरीबन दो हजार करोड़ रूपये हैं. बालदिया में आठ बैंक हैं.
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माधापर
भुज के समीप ही कुछ और गाँव भी बैंकों में जमा राशि के मामले में बालदिया जैसे ही हैं. इस गाँव में अवस्थित बैंकों की शाखाओं में करीब पाँच हजार करोड़ की जमा राशि है.
केरा
केरा गाँव में खुली बैंकों की शाखायें भी जमा राशि के मामले में बैंकाभाव वाले दूसरे गाँवों को मुँह चिढ़ाती नजर आती है. इस गाँव के बैंकों की शाखाओं में जमा राशि दो हजार करोड़ रूपये के आसपास बतायी जाती है.
क्या हैं अत्यधिक जमा राशि के कारण
करीब 9 हजार करोड़ रूपये की जमा राशि रखने वाले इन गाँवों में विभिन्न बैंकों की 30 शाखायें और 24 एटीएम हैं. इन गाँवों के अधिकाँश कामगर प्रवासी बन चुके हैं. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया में जाकर नौकरी या व्यवसाय करने वाले ये कामगर अपने परिवार के सदस्यों के लिए अच्छी-खासी राशि भेजने लगे. यहीं नहीं वो अपने गाँव नियमित तौर पर आते-जाते रहते हैं.
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इसलिये बैंक रखते हैं यहाँ आने की चाहत
बैंकों की शाखा का दुधारू होना एक वांछित शर्त है. प्रवासी निवासियों की ओर से बड़ी संख्या में भेजे जा रही राशि को अपनी शाखा की तरफ खींचने के लिए बैंकों में प्रतिस्पर्धा है. इसलिये अधिकांश बैंक इन गाँवों में अपनी शाखा खोलने को लालायित रहते हैं.
झलकती है समृद्धि
भारी संख्या में प्रवासी पैसों के कारण और बैंकों में लगी होड़ के कारण इन गाँवों में निर्मित घर, स्कूल और अस्पताल आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न हैं. ये चीज़ें इन गाँवों की समृद्धि का आईना दिखाती-सी प्रतीत होती है.Next…..
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