- 173 Posts
- 129 Comments
भारत में दवाइयों के कारोबार के मकड़जाल के बीच सुप्रीम कोर्ट ने 1 अप्रैल, 2013 को एक ऐसा फैसला सुनाया जिससे हर किसी के चेहरे पर मुस्कान आ गई. कोर्ट ने स्विट्जरलैंड की दवा कंपनी नोवार्टिस की कैंसररोधी दवा ग्लीवेक के पेटेंट से संबंधित याचिका को खारिज कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति आफताब आलम तथा रंजना प्रकाश देसाई की पीठ ने यह निर्णय दिया. नोवार्टिस चाहती थी कि कैंसर की एक दवा के नए संस्करण ग्लीवेक के लिए उसे एक फिर पेटेंट दिया जाए. कोर्ट का कहना है कि भारतीय पेटेंट कानून की धारा 3 (डी) के तहत दवा के लिए दोबारा पेटेंट नहीं दिया जा सकता है.
लोकायुक्त मामले ने जाहिर की मोदी की तानाशाही
इसे एक ऐतिहासिक फैसला माना जा रहा है. भारत में सबकी नजर इस मसले पर लगातार बनी हुई थी क्योंकि भारत में इसका असर इलाज कराने वाले मरीजों से लेकर भारतीय दवा कंपनियों के भविष्य से संबंधित है. इस समय भारत उन देशों में शामिल है, जहां तेजी से दवाओं का बाजार अपना पैर फैला रहा है. इस फैसले के तहत कोर्ट ने भारतीय पेटेंट कानून का समर्थन किया है, जो निरर्थक पेटेंट्स को खारिज करता है. यह कानून यह संदेश देता है कि हम कंपनियों को उन वस्तुओं पर पेटेंट के लिए प्रोत्साहित नहीं करना चाहते जो पहले से ही मौजूद हैं.
क्या है नोवार्टिस कंपनी का मामला
दवाओं के धंधे में खरबों रुपये का मुनाफा है और यह मुनाफा लागत से कई गुना ज्यादा होता है. इस वजह से होता यही है कि बड़ी बड़ी कंपनियां अपने पहले से आ रहे किसी उत्पाद में थोड़ा सुधार करके उसे बाजार में पेश करती हैं. चूंकि पश्चिमी देशों में ऐसे पेटेंट मिलते हैं, इस वजह से अन्य कोई कंपनी अगर उसी किस्म का उत्पाद बनाए तो बड़ी कंपनी उसे रोक सकती है या विश्व व्यापार संगठन के बौद्धिक संपदा अधिकारों के संबंध में जो नियम कानून बने हैं, उसके तहत कार्रवाई कर सकती है. यह मामला शुरू हुआ था स्विट्जरलैंड की दवा कंपनी नोवार्टिस द्वारा निर्मित दवा ग्लिवेक के बाद.
वर्ष 2003 में नोवार्टिस को इस दवा की मार्केटिंग के अधिकार पांच साल तक के लिए मिले, जिसके आधार पर उसने सिप्ला, रैनबैक्सी और सन फार्मा जैसी कंपनियों को इसकी मार्केटिंग करने से रोका. जब यह दवा जनवरी 2005 में बाजार में लाई गई तो कंपनी का दावा था कि भारत में इस दवाई को बेचने का अधिकार केवल उसके पास है. चूंकि अब इस दवा पर नोवार्टिस का ही एकाधिकार था, इसके चलते दवा की कीमत एक माह की जरूरत के लिए 10 हजार रुपये से अचानक लाख रुपये तक पहुंच गई.
भारतीय कंपनियों ने इसी के बाद अदालत की शरण ली और बताया कि ग्लिवेक दरअसल एक पुरानी दवा का ही सुधरा संस्करण है, जो पेटेंट अधिनियम की नवीनता वाले प्रावधान पर खरा नहीं उतरता. जनवरी 2006 में चेन्नई के पेटेंट ऑफिस ने नोवार्टिस के इस पेटेंट आवेदन को इसी बुनियाद पर खारिज किया और कहा कि यह जानी हुई दवा का ही नया रूप है. नोवार्टिस ने इसके बाद मद्रास हाईकोर्ट में अपील की. वहां पर भी उसकी अपील दो बार खारिज हुई.
दरअसल ग्लीवेक पर पेटेंट की मांग इसलिए स्वीकार नहीं की गई क्योंकि निचली अदालत ने ये माना कि कंपनी ने बाज़ार में उपलब्ध दवा के फॉर्म्यूले में छोटा-मोटा बदलाव कर उस पर अधिकार जमाना चाहा. नोवार्टिस इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था.
क्या होता है पेटेंट
किसी अविष्कार, नई तकनीक या बिजनेस के तरीकों पर सरकारों द्वारा कंपनियों को पेटेंट दिया जाता है. यह कॉपीराइट कानून से भिन्न होता है ‘कॉपीराइट’ एक ऐसे कानून का नाम है, जो किसी व्यक्ति को उसके बौद्धिक, कलात्मक, विचारात्मक, क्रियात्मक तथा मौलिक सृजन का मालिक बनाता है जबकि पेटेंट कानून किसी भी उत्पादन से संबंध रखता है.
आमतौर पर किसी भी उत्पाद पर पेटेंट कम से कम 20 साल के लिए दिया जाता है और इस अवधि के समाप्त होने के बाद दूसरी कंपनियों को अधिकार मिल जाता है कि वो उसी तकनीक का इस्तेमाल कर वही चीज बना सकें. जहां तक दवाइयां बनाने की बात है तो अधिकतर विकसित देशों में दवाई बनाने वाली कंपनियों को उनकी दवाइयों की तकनीक पर पेटेंट दिया जाता है.
भारत में पेटेंट
भारत में 2005 से पहले दवाइयों पर कोई पेटेंट नहीं दिया जाता था, जिसकी वजह से दवाइयों का उत्पादन सस्ता था. 2005 में विश्व व्यापार संगठन ने कड़ा रुख अपनाते हुए भारत से कहा कि वो दवाओं पर पेटेंट देना शुरू करे, जिसके बाद भारत ने अपने पेटेंट कानून में बदलाव किए. जिसके बाद से दवा बनाने वाली कंपनियों के बीच होड़ सी मचने लगी.
क्या है भारतीय पेटेंट कानून की धारा 3 (डी) और 3 (बी)
• भारतीय पेटेंट कानून की धारा 3 (डी) के तहत पहले से प्रसिद्ध दवाओं के लिए पेटेंट प्रतिबंधित है, जब तक कि उस दवा के आविष्कार में प्रभावकारिता के संदर्भ में श्रेष्ठता न हो.
• भारतीय पेटेंट कानून की धारा 3 (बी) के तहत उन उत्पादों के लिए पेटेंट प्रतिबंधित है जो जनता के हित के विरुद्ध हैं और जो उत्पाद पहले से मौजूद उत्पादों से उन्नत नहीं हैं.
धारा 3 (डी), जिसे लेकर नोवार्टिस ही नहीं, बल्कि दवाओं के धंधे में लगी अन्य तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां परेशान हैं, दरअसल, यह धारा किसी ऐसी चीज का पेटेंट देने से रोकती है, जिसे पहली किसी चीज में मामूली सुधार करके पेश किया गया हो. इसी आधार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अलग-अलग पेटेंट के दावे भारतीय पेटेंट ऑफिस ने खारिज किए हैं.
आम लोगों को फायदा
भारत में आम कंपनियां ग्लीवेक नाम की ये दवा करीब 9,000 रुपए प्रति माह के दाम पर बनाती हैं, जबकि नोवार्टिस की दवा की कीमत करीब 2600 डॉलर यानी एक लाख 30 हज़ार रुपए प्रति महीना है. जाहिर है इस फैसले के बाद भारतीय कंपनी की दवा अपेक्षाकृत सस्ती होने के कारण ज्यादा से ज्यादा मरीजों के लिए उपलब्ध हो सकती है.
भारतीय बाजार पर इसका असर
अगर फैसला भारतीय कंपनी के खिलाफ जाता तो यह दवा गिने-चुने लोगों तक सीमित हो जाती. वहीं अगर नोवार्टिस इस दवा पर बौद्धिक संपत्ति का अधिकार या पेटेंट जीतने में कामयाब होती तो ये दवा आम लोगों की पहुंच से बाहर हो जाती. इसका असर दूसरी कंपनियों पर भी पड़ता. ये कंपनियां भी अपनी दवाइयों पर पेटेंट मांगने लगतीं. हालांकि पश्चिमी दवा कंपनियों का कहना है कि नोवार्टिस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के फैसले से शोध कार्यों में पैसा लगाने वालों को धक्का पहुंचेगा. यह फैसला उन्नत दवाओं की खोज को भी हतोत्साहित करेगा. इसके अलावा माना यह भी जा रहा है कि इस फैसले से दवा क्षेत्र में विदेशी निवेश पर असर पड़ सकता है.
भारतीय कंपनी, पेटेंट, नोवार्टिस .
Read Comments