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महंगाई से मात खाता रिजर्व बैंक

अर्थ विमर्श
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भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में अर्थव्यवस्था की जो तस्वीर पेश की है और जिस मौद्रिक नीति की घोषणा की है, उनसे पता चलता है कि आर्थिक क्षेत्र में भारत के सामने राहत और सहूलियत से ज्यादा गंभीर चुनौतियां विद्यमान हैं। बैंक ने रेपो और रिवर्स रेपो दरों में आधा-आधा प्रतिशत यानी 0.50 प्वाइंट की बढ़ोतरी की है। अब रेपो दर 7.25 प्रतिशत तथा रिवर्स रेपो दर 6.25 प्रतिशत होगी। इसका अर्थ हुआ कि आम बैंक रिजर्व बैंक से जो भी कर्ज लेंगे, वह और रिजर्व बैंक में ये बैंक जो धन रखेंगे वह भी (रिवर्स रेपो) महंगा हो जाएगा। हालांकि रेपो और रिवर्स रेपो दरों में वृद्धि अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन यह असाधारण स्थिति है जब मार्च 2010 के बाद के एक वर्ष एक महीने में नौंवी बार ऐसा किया गया है। पिछले मार्च महीने में भी बैंक दरों में चौथाई प्रतिशत यानी 0.25 प्वाइंट की वृद्धि की गई थी। कुल मिलाकर इस बीच रेपो दर और रिवर्स रेपो दर दोनों में 4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो चुकी है। यह किसी दृष्टि से स्थिर नीति का संकेत नहीं है। हां, बैंकों का नकदी जमा अनुपात यानी सीआरआर जरूर 6 प्रतिशत रहने दिया गया है। रेपो दरों में वृद्धि का प्रत्यक्ष उद्देश्य बाजार से नकदी खींचना होता है यानी बाजार से नकद बैंक तक आ जाए। बचत खाता में आधा प्रतिशत ब्याज की बढ़ोतरी का उद्देश्य भी आम खातेदारों को बैंक में धन रखने के लिए प्रेरित करना ही है।


लगभग सात साल बाद की गई यह बढ़ोतरी साधारण घटना नहीं मानी जा सकती। यह रिजर्व बैंक की सोच में आए परिवर्तन का संकेत है। इसका सामान्य विश्लेषण यह किया जा रहा है कि सभी प्रकार के कर्ज महंगे हो जाएंगे। कर्ज महंगा होना बाजार पूंजीवाद की अर्थव्यवस्था में विकास की गाड़ी के सामने गति अवरोध समान है। उद्योग जगत कतई नहीं चाहता था कि ब्याज दरों में वृद्धि हो, क्योंकि इससे बाजार में नकदी कम होती है और कर्ज कम मिलता है, जिससे मांग और आपूर्ति दोनों पर असर होता है। साथ ही उत्पादन लागत भी बढ़ती है। औद्योगिक विकास दर में लगातार गिरावट की प्रवृत्ति चल रही है। कच्चे माल के बढ़े हुए मूल्यों के कारण भी उत्पादन लागत बढ़ती है। जाहिर है, रिजर्व बैंक ने यह जानते हुए भी यदि ब्याज दर बढ़ाने का निर्णय किया है तो उसकी ठोस आर्थिक-वित्तीय वजहें होंगी। मौद्रिक नीति जारी करने के एक दिन पूर्व रिजर्व बैंक ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में महंगाई दर पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। इसके अनुसार महंगाई दर 7.5 प्रतिशत तक जा सकती है। यह रिवर्ज बैंक के पूर्व अनुमान 6.6 प्रतिशत से .9 प्रतिशत अधिक है।


तमाम कोशिशों के बावजूद महंगाई का ग्राफ सामान्य नहीं हो रहा और यह अभी भी बहुते बड़ी चुनौती है। मार्च में थोक मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर 8.98 प्रतिशत बताई गई थी। खाद्य सामग्रियों और कच्चे तेल के मूल्यों को महंगाई का सर्वप्रमुख कारण माना जा रहा है। राजनीतिक दबाव में महंगाई कम करने को सरकार उच्चतम प्राथमिकता बता रही है और पूंजीवादी अर्थशास्त्र के परंपरागत नुस्खे में बाजार से नकदी घटाना एक प्रमुख औषधि है। एक साल पहले महंगाई दर के करीब 11 प्रतिशत पहुंचने के साथ रिजर्व बैंक ने बाजार से नकदी खींचने की नीति आरंभ की थी। प्रश्न है कि जब एक वर्ष में महंगाई कम नहीं हुई तो आगे कैसे हो जाएगी? ध्यान रखने की बात है कि महंगाई दर का यह आकलन सामान्य मानसून और कच्चे तेल के 110 डॉलर प्रति बैरल के औसत मूल्य पर आधारित है।


मिस्त्र और ट्यूनीशिया में राजनीतिक उथल-पुथल, लीबिया में गृहयुद्ध के कारण तेल मूल्यों में वृद्धि हुई है। 120 डॉलर प्रति बैरल की दर से भारत को कच्चा तेल खरीदना पड़ा है। जाहिर है, तेल के मूल्य यदि 110 डॉलर प्रति बैरल के आसपास नहीं रहा तो महंगाई में उछाल अवश्यंभावी है। इस समय भी इसका मूल्य 114 डॉलर प्रति बैरल के आसपास है। पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने कहा कि प्रति बैरल एक डॉलर की वृद्धि का असर 3,200 करोड़ हो जाता है। रिजर्व बैंक का सुझाव है कि सरकार डीजल एवं पेट्रोल के दाम बढ़ाए। अन्यथा, सब्सिडी के बोझ से राजकोषीय घाटे में वृद्धि हो सकती है। अर्थव्यवस्था को एक शरीर मान लें तो उसके किसी अंग की गतिविधि उसी तक सीमित नहीं होती। उसका असर पूरे शरीर पर पड़ता है। रिजर्व बैंक के सामने महंगाई को रोकना ऐसी चुनौती है, जिसके लिए वह लगातार हाथ-पैर मार रहा है। संभव है आगे वह तुरत ब्याज दर और बढ़ाए, लेकिन यह दूसरी ओर अर्थव्यवस्था के वर्तमान ढांचे में कई चुनौतियां और समस्याएं और पैदा कर रहा है। बाजार से नकदी हटाते हैं या ब्याज दर बढ़ाते हैं तो इसका असर आर्थिक गतिविधियों के लिए धन की कमी और उपलब्ध धन के महंगे होने के रूप में सामने आता है। लागत बढ़ने का अर्थ ही है उत्पाद का मूल्य बढ़ना।


इस प्रकार महंगाई घटाने के लिए मुद्रा संबंधी कदमों से कुछ वस्तुओं के मूल्य गिरते हैं तो दूसरी ओर कुछ वस्तुओं के बढ़ते भी हैं। तो फिर चारा क्या है? यह ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर देना नामचीन अर्थशास्ति्रों के लिए भी कठिन हो गया है। रिजर्व बैंक साफ कह रहा है कि कृषि पैदावार बेहतर होने के बावजूद महंगाई से निजात मिलने की संभावना नहीं है। साफ है कि महंगाई दर को प्रभावित करने की मौद्रिक नीति की क्षमता अब नि:शेष हो रही है। ऐसा क्यों हो रहा है? इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो फिर वर्तमान अर्थव्यवस्था की ऐसी कई पेचीदगियां उभरने लगती हैं, जिनका कोई जवाब किसी के पास नहीं है। भूमंडलीकरण ने ऐसी अनेक पेचीदगियां उत्पन्न की हैं, जिनकी न व्याख्या परंपरागत दृष्टिकोण से संभव है और न उनका निदान ही। अगर बाजार में पर्याप्त सामान उपलब्ध हैं तो फिर महंगाई होनी नहीं चाहिए, लेकिन ऐसा हो रहा है।


स्पष्ट है कि बाजार को कई ऐसी शक्तियां, ऐसे सिद्धांत कुप्रभावित कर रहे हैं, जिनका नियंत्रण सरकार एवं केंद्रीय बैंक की सीमा से बाहर हैं। महंगाई पूरी अर्थव्यवस्था पर कितना असर डाल सकती है, इसका खुलासा रिजर्व बैंक ने ही अपनी रिपोर्ट में किया है। बृहद आर्थिक और मौद्रिक घटनाक्रम नाम की इस रिपोर्ट में उसने सबसे पहले 2011-12 की विकास दर को घटाकर 8.2 प्रतिशत कर दिया है। यह सरकार के 9 प्रतिशत तथा पूर्व के अपने ही अनुमान 8.5 प्रतिशत से कम है। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने अपने भाषण में इसका कारण बताते हुए यूरो क्षेत्र का कर्ज संकट, सामग्रियों के बढ़ते दाम विशेषकर तेल के उच्च मूल्य व अर्थव्यवस्थाओं पर महंगाई के दबाव का उल्लेख किया। इससे चालू खाते का घाटा भी बढ़ सकता है। वैसे तो चालू खाते का घाट 2.5 प्रतिशत तक सीमित रहने का अनुमान है, जो तीन प्रतिशत के पूर्व अनुमान से कम है। कह सकते हैं कि चालू खाते का घाटा चिंताजनक नहीं है, लेकिन ऐसा ही होगा इसकी गारंटी नहीं, क्योंकि इसका दारोमदार तेल मूल्यों पर और आयात-निर्यात में अंतर पर निर्भर करता है। तेल के मूल्य बढ़े तो इसमें वृद्धि हो सकती हैं। इसके अलावा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में कमी, इक्विटी और बॉन्ड बाजार में अस्थिरता तथा देश पर बढ़ता विदेशी कर्ज हमारी अर्थव्यवस्था के ऐसे साकार पहलू हैं, जो चालू खाते पर घाटा तो बढ़ाएंगे ही, पूरी अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकते हैं। व्यापार घाटा देखिए।


वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय द्वारा जारी आयात निर्यात के अंतिम आंकड़े के अनुसार, 2010-11 में निर्यात 37.5 प्रतिशत बढ़कर 245.86 अरब डॉलर हुआ तो आयात भी 21.6 प्रतिशत बढ़कर 350.69 अरब डॉलर हो गया। इस प्रकार कुल घाटा 104.82 अरब डॉलर हुआ। माना जा रहा है कि साल का अंत आते-आते व्यापार घाटा पिछले साल से बढ़ेगा ही, घटेगा नहीं। निर्यात 300 अरब डॉलर को पार करेगा तो आयात 400 अरब से ऊपर चला जाएगा। हालांकि ये सारी चुनौतियां बहुत साफ शब्दों में हमें आगाह कर रही हैं, लेकिन वर्तमान अर्थव्यवस्था के ढांचे में विचार करने वालों को कभी इसका भान नहीं हो सकता। वस्तुत: ये चुनौतियां विकास के नाम पर अत्यधिक उपभोग को प्रोत्साहन, उसके लिए सुलभ कर्ज उपलब्धता, कर्ज एवं उपभोग को सामान्य जीवन शैली मान लेने की प्रेरणा आदि के सम्मिलित परिणाम हैं। जाहिर है, इनका निदान मौद्रिक या अन्य कृत्रिम नीतियों में नहीं, पूरी आर्थिक सोच में परिवर्तन से निकलेगा।


[अवधेश कुमार: लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं]


साभार: दैनिक जागरण ई पेपर


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