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न जी भर के देखा न कुछ बात की…

विचार भूमि
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न जी भर के देखा न कुछ बात की, बड़ी आरजू थी मुलाकात की…

प्रधानमंत्री जी के देश से मुखातिब होने के बारे में, किसी शायर की ये शायरी बिलकुल मुनासिब बैठती हैं. सारा देश, प्रधानमंत्री जी से देश की सबसे बड़ी समस्या के लिए समाधान और रणनीति की उम्मीद कर रहा था लेकिन प्रधानमंत्री जी परदे के आगे भी वैसे निकले, जैसे की वो परदे के पीछे थे. वह कॉन्फ्रेंस, जिसमे देश को “अपने प्रधानमंत्री” से मिलने की उम्मीद थी लेकिन वहां मिले “डॉ. मनमोहन सिंह जी”. मै एक व्यक्ति के तौर पर डॉ. मनमोहन सिंह जी को जितना सरल और इमानदार इन्सान मानता हूँ एक प्रधानमंत्री के तौर पर उनको उतना ही कमजोर और सामर्थ्यहीन पाता हूँ.

इस पूरी कॉन्फ्रेंस में डॉ. साहब, व्यक्तिगत तौर पर अपना बचाव करते रहे और यह सन्देश देने की कोशिश करते रहे कि चाह कर के भी वो कुछ नहीं कर सकते थे. उनका बचाव था कि ए. राजा उनकी नहीं बल्कि “डी एम् के” कि पसंद थी, लेकिन क्या सत्ता पाने और चलाने के लिए देश के प्रधानमंत्री इतना भी नहीं कर सकते थे कि दागी लोगो को अपने मंत्रिमंडल में जगह न देते? ये तो निश्चित है कि जितना कांग्रेस को सरकार बनाने में दिलचस्पी थी उससे कही जयादा “डी एम् के” को सरकार के साथ बने रहने में थी. ये दांव खेला जा सकता था कि अगर “डी एम् के” किसी और व्यक्ति को मंत्रीपद के लिए उपयुक्त नहीं समझता तो वो सरकार से बाहर रह सकते है. लेकिन ऐसा हुआ नहीं क्यों कि ऐसा कभी सोचा ही गया नहीं.

डॉ. साहब ने कहा कि देश हर ६ महीने में चुनाव नहीं झेल सकता, मेरा सवाल है तो क्या देश हर महीने इस तरह के घोटाले झेल सकता है? शायद “डी एम् के” के बिना “यू पी ऐ” सरकार नहीं बन पाती शायद देश में फिर से चुनाव होते लेकिन फिर देश को उतना आर्थिक, सामाजिक और सांस्क्रतिक नुकसान नहीं होता जितना कि सरकार बनाने और चलाने कि मजबूरी में हो गया.

चलिए मान लिया कि गठबंधन की अपनी मजबूरियां थी, लेकिन उन सवालो और समस्याओं का क्या जो उनके अपनों ही लोगो से जुड़े है. राष्ट्रमंडल खेलों कि अनियमितताओं के लिए सारा देश चिल्लाता रहा लेकिन हुआ क्या!! खेल ख़तम होने के महीनो बाद करवाई होती है जब सारे सबूत ख़तम किये जा चुके, जब सारा धन सुरक्षित जगह पहुचा दिया गया. एक दागी व्यक्ति को “CVV” का प्रमुख बनाने के लिए जिस तरह की जल्दबाजी करी गई उसमे कौन से गठबंधन मजबूरी थी, उसमे भी तुर्रा ये था की हमको जानकारी नहीं थी कि थामस साहब के खिलाफ कोई कोई मामला लंबित है. अगर प्रधानमंत्री जी, सच में थामस साहब के बारे में अनभिज्ञ थे तो हम तो यही कहेगे कि PMO कार्यालय और प्रधानमंत्री के सलाहकार कितने निरर्थक है, ये लोग देश की सबसे बड़ी नियुक्तियों के लिए चयनित व्यक्तियों का सही Bio-Data तक प्रधानमंत्री को नहीं उपलब्ध करा पाते हैं.

डॉ. साहब ने एक बात और कही की मीडिया, भ्रष्टाचार को बढ़ा-चढ़ा के न दिखाए, इससे देश की छवि ख़राब होती है. इससे तो यही लगता है कि अभी भी भ्रष्टाचार की समस्या, की गंभीरता प्रधानमंत्री जी समझ नहीं पाए है. उनको देश की छवि की तो चिंता है लेकिन देश की उतनी नहीं. एक आम भारतीय होने के नाते मै अपनी क्षमता और सीमा से इस समस्या के लिए लड़ता हूँ और जागरूकता फैलता हूँ पर क्या प्रधानमंत्री जी अपनी पूरी क्षमता और अधिकार से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे है? मुझे तो नहीं लगता.

खुद को कमजोर और मजबूर दिखा कर के सहानभूति तो हासिल करी जा सकती है लेकिन समस्याएं हल नहीं. देश उनको प्रधानमंत्री के तौर पर माफ़ कर भी देगा अगर वो अब भी इक्षाशक्ति दिखाए, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की और दोषियों के खिलाफ निर्णायक करवाई करने की; वरना कही ऐसा न हो की वो भी एक ऐसे शासक की तरह से याद किये जाये जैसा कि “नीरो” के बारे में कहा जाता है कि जब सारा रोम जल रहा था तब राजा “नीरो” बेफिक्री में जी रहा था….

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