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मुंबई के सबक…

विचार भूमि
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मुझे याद है कि बचपन में जब हमारे बड़े बुजुर्ग हमें कोई कहानी सुनते थे तो आखिर में यह पूछा करते थे कि, इस कहानी से हमें क्या सबक मिलता है और हम बाल-बुद्धि के प्रयोग से कभी उचित और कभी अनुचित सबक बताने का प्रयास किया करते थे. वक़्त अब बदल चुका है, अब कोई कहानी सुनाने नहीं आता, अब जिंदगी से सबक लेना पड़ता है. किसी ने कहा था कि, हमें दूसरो कि गलतियों से सबक लेना चाहिए, क्यों कि जिंदगी इतनी छोटी है कि आप सारी गलितियाँ खुद नहीं कर सकतें है.

जब ये सबक लेने की घुट्टी हम सबको बचपन से ही पिलाई जाती है तो आखिर क्या कारण है कि हम वही गलती बार बार दोहराते है और कोई सीख नहीं लेते है. देश में कुछ समय के लिए शांति रहती है लेकिन फिर कही कोई बम विस्फोट हो जाते है, या फिर कही दंगे भड़क जाते है. वह देश जो विश्व में दूसरी सबसे तेजी से उभरती आर्थिक शक्ति है और सारी दुनिया जिसकी तरफ उम्मीद से देखती है, उन उमीदो पर ग्रहण लग जाता है जब दुनिया देखती है कि वह देश अभी भी अपने लोगो को सुरक्षा नहीं दे पाता है.

मैंने एक बड़ा अंतर देखा है सबक सीखने में, हिंदुस्तान के और अमेरिका के. अमेरिका में ९-११ के बाद जो फर्श से लेकर अर्श तक व्यवस्था और कानून परिवर्तन किये गए और जिस तरह से आम लोगो को जागरूक बनाया गया, शायद उसी का परिणाम है कि ९-११ के बाद अमेरिका में कोई भी सफल आतंकी हमला नहीं हुआ है. वही दूसरी तरफ लगातार आतंकी हमले झेलने के बाद भी, हिंदुस्तान में न तो व्यवस्था में में ही कोई बदलाव आया है और न ही इक्षाशक्ति में. भारत में आज भी आतंकवाद को धर्म के चश्मे में देखा जाता है और एक राजनीतिक मुद्दा बना कर चुनावो में इस्तेमाल किया जाता है.

बड़ा तरस आता है जब मीडिया मुंबई के जज्बे को सलाम करता है और कहता है कि मुंबई कि रफ़्तार में हमलो से कोई कमी नहीं आती है. मुंबई के जज्बे से जयादा यह मुंबई की मजबूरी है कि वह रुक नहीं सकती. लोगो को पाता है, उनके काम पर न जाने से या घर पर बैठने से कोई भी चीज बदलने वाली नहीं है. कोई भी इस मजबूरी किसी भी तरह से लोगो के सामने रखे लेकिन न तो हालत बदल रहे है और न जज्बात.

हम प्रधानमंत्री जी की भावनाओ का आदर करते है लेकिन प्रधानमंत्री जी का बयान की “हम यहाँ आप के आंसू पोछने आये है”, कोई संवेदना नहीं पैदा करता है. सरकार की प्राथमिकता आतंकवाद के प्रति क्या है वह गृहमंत्रालय और कांग्रेस महासचिव के बयानों से साफ़ झलकती है. जिन मुद्दों पर सिर्फ काम होना चाहिए वहां बयानबाजी होती है और जहाँ पर जनता को जवाब चाहिए होते है वहां सरकार चुप रहती है.

कारण कोई कितने भी गिनाये की भारत में आतंकवाद १००% क्यों नहीं ख़तम हो सकता है लेकिन “बेस लाइन” वही है, कि दूसरो की छोड़िये हम अपनी ही गलतियों से सबक लेने को तैयार नहीं है.

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