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दो भारत के बीच की दूरी…

विचार भूमि
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हर शाम जब मै अपने ऑफिस से घर के लिए निकलता हूँ…
ऊँची इमारतो के पीछे से पतली गलियों से गुजरता हूँ…
इमारते हरे और नीले शानदार कांच से ढकी हुई होती है…
पर गलियां…उजड़े रस्ते और कचरे से भरी रहती है….

इमारते उस भारत की तस्वीर देती हैं जो हर रोज अखबारों और समाचारों में चमकता है….
और गलियां उस भारत की जहाँ गरीब और अनपढ़ मजदूर सिसकता है…

दोनों ही तरह के भारत ने अपनी अपनी जगह ढूढ़ ली है….
एक ने जिन्दगी जीने की और दूसरे ने मर मर के जिंदा रहने की कला सीख ली है….

एक को बिना “ऐ सी” के जीना मुश्किल होता है…
और दूसरा ता-उम्र एक छत के लिए तरसता है…..

एक भारत के बच्चे पहले कॉन्वेंट फिर इन्जीनरिन्ग और फिर एम् बी ऐ के लिए विदेश जाते है…
और दूसरे भारत के बच्चे….बचपन किसी ढाबे के बर्तन साफ़ करके या सड़क पर गुब्बारे बेच के बित्ताते है….

एक भारत एक रात की पार्टी पर कई लाख उडाता है…..
और दूसरा दो दिन भूखा रहने के बाद तीसरे दिन भी भूखा ही सो जाता है….

लेकिन पता नहीं कहाँ पे कमी रह गई….
गाँधी के गरीबी उन्मूलन में….या लोहिया के समाजवाद में…
दीनदयाल के अन्त्योदय में …या अम्बेडकर के दलित उथान में…

शायद नहीं, कमी इनके प्रयासों में नहीं….
बल्कि आजाद भारत के भाग्य विधाताओ और जन मानस की इच्छा शक्ति में रही…
जिससे दो तरह के भारत की दूरी, कुछ दूर, दूर और बहुत दूर होती चली गई…

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