आज मै जब भारतीय राजनीति को देखता हूँ तो “वोट बैंक” एक ऐसा शब्द है जिसकी आयु तो बहुत अधिक नहीं है लेकिन इसने प्रभाव बहुत बड़ा छोड़ा है, भारतीय राजनीति और पूरे भारतवर्ष पर. यह एक ऐसा शब्द है जिसने देश की दिशा और दशा दोनों को ही प्रभावित किया है. व्यक्तिगत तौर पर मै इस शब्द के साथ अपने को नहीं खड़ा कर पाता हूँ. यह वह शब्द है जो एक साथ मिलकर चलने वाले समाज के बीच में, अचानक से दूरियां पैदा कर देता है. किसी भी जाति, धर्म और समाज के साथ जब यह शब्द जुड़ जाता है तो भले ही हमको इसका तात्कालिक लाभ दिखता है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं है.
मै यहाँ पर अपने विचार व्यक्त करना कहूँगा, कि एक “वोट बैंक” बनकर भारतीय मुस्लिम समाज पर क्या असर हुआ है. इतिहास पर नज़र डालने से पता चलता है कि, भारत पर दो तरह के मुस्लिम शासकों ने राज किया है, एक वो जिन्होंने तलवार के बल पर अत्याचार के साथ सत्ता पर नियंत्रण किया और दूसरे वो जिन्होंने भारत को ही अपनी मादरे-वतन माना और भारत को मजबूत और ताकतवर बनाने के लिए काम किया. किसी भी और धर्म की तरह, भारत में मुस्लिम धर्म ने भी एक नयी विविधता भरी. मुग़ल काल में कला, साहित्य, भवन निर्माण और सड़क निर्माण एक नयी उचाईयों तक पहुचा. भारत के इस्लाम ने ही दुनिया को बेहतरीन योद्धा, शायर, गायक, कारीगर और जीवन को नई दिशा देने वाले सूफी संत दिए. टीपू सुल्तान, बहादुर शाह जफ़र, अशफाक उल्ला खान, अदुल हमीद जैसे न जाने कितने देशभक्तो ने देश के लिए अपनी जान देकर भारत का मान बढाया है.
वह मुस्लिम समाज जिसका इतना शानदार इतिहास रहा है आज तेजी से बढ़ाते भारतीय समाज में कही पिछडता चला जा रहा है. आज सरकारी या गैर सरकारी नौकरियों में मुस्लिम युवक और युवतियों की संख्या काफी कम है और इनकी बेरोज़गारी, गरीबी और अशिक्षा का स्तर खतरनाक हद तक बढ़ा हुआ है. लेकिन कोई भी राजनैतिक दल यह सोचने को तैयार नहीं है कि मुस्लिम समाज की यह हालत क्यों हो गई है और इस हालत से कैसे निपटा जाये. यह स्थति आज इस लिए हो रही है क्योंकि आज मुस्लिम लोग देश की जनता से अधिक एक “वोट बैंक” बन चुके है.
जैसा की किसी भी बैंक में जमा पैसे के साथ होता है कि फायदा तब होता है जब आप का जमा धन या तो सुरक्षित रहे या अधिक होता जाये. चुकी मुस्लिम समाज एक “वोट बैंक” बन चुका है तो राजनैतिक दलों को फायदा तभी होगा जब मुस्लिम समाज की समस्याओ को या तो वैसे ही रखा जाये या फिर उन्हें बढ़ने दिया जाये. कारण बहुत साफ़ है की अगर समस्याए हल हो गई तो “वोट बैंक” का क्या होगा जो चुनावो में नेताओ लिए एक मुश्त वोट की तरह आता है.
क्योंकि मुस्लिम एक “वोट बैंक” है, अपने पहले कार्यकाल में वर्त्तमान प्रधानमंत्री जी ने कुछ बड़े ही विवादित बयान दिए थे जैसेकि “देश के संसाधनों पर पहल अधिकार अल्पसंख्यको का है..” या “मै रात भर सो नहीं पाया.., (बंगलुरु के एक मुस्लिम डाक्टर के परिवार के बारे में सोच कर..)”. मेरी समझ से, इस तरह के बयानों से समाज में एक सनसनी तो फैलाई जा सकती है और “वोट बैंक” की सहानभूति भी प्राप्त करी जा सकती है, लेकिन इस तरह के बयानों से जमीनी स्तर पर पिछड़े मुसलमानों का भला नहीं किया जा सकता है. देश में मुसलमानों की स्थति जानने के लिए, सरकार ने एक “सच्चर कमेटी” भी बनायीं थी. जैसा की देश के सभी नीति निर्धारको को लगता है कि किसी भी वोट बैंक को लुभाना है तो आप तुरंत आरक्षण देने की बात शुरू कर दें. वह आरक्षण जो देश में ५० सालों से भी जयादा रहते हुए भी गरीब, दलित और शोषित लोगो का जीवन स्तर नहीं सुधर पाया, पता नहीं वो मुस्लिम समाज को कितने सालो में ऊपर ला पाता?
एक तरफ तो सरकार ये कहती है कि देश के सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं है और दूसरी तरफ “अफज़ल गुरु” जैसे अतंकवादियो को फ़ासी इस लिए नहीं देती कि कही ऐसा करने से उनका “वोट बैंक” ना खिसक जाये. मेरे लिए तो आतंक का ना तो कोई धर्म होता है और ना ही जाति. आज तक मै ऐसे किसी भी अपने मुसलमान दोस्त से नहीं मिला, जिसे “अफज़ल गुरु” को फासी देने से कोई परेशानी हो. हर देशभक्त अतंकवादियो को फासी देने के हक में है, लेकिन शायद सरकार के विश्वास में ही कही कमी है जो एक आतंकवादी को सारे मुसलमानों के साथ खड़ा कर देती है और समझती है कि “अफज़ल गुरु” को सारे देश के मुसलमानों का समर्थन है. सरकार को यह समझाना चाहिए कि “अफज़ल गुरु” की साजिशें जब हिन्दू और मुस्लमान को मारने में अंतर नहीं करती तो एक आम मुसलमान को किसी आतंकवादी के धर्म से क्या अंतर पड़ेगा.
मुस्लिम समाज के हित में, आज तक मैंने किसी भी राजनेता या मुस्लिम धर्मगुरु को मुसलमानों की असली समस्याओ को उजागर या हल करते हुए नहीं देखा है. कोई नहीं कह पता है अनियंत्रित जनसँख्या, गिरा हुआ शिक्षा का स्तर(खास तौर पर महिलाओ में) और कम उम्र में शादी, मुसलमानों को पीछे ले जाने वाले मूल कारण है. किसी भी मुस्लिम परिवार में अधिक जनसँख्या दबाव उनके बच्चो को न तो पर्याप्त भोजन दे पाता है और न ही अच्छी शिक्षा; लडकियों को घर के बाहर न निकालने की और लडको के साथ न पढ़ाने की मजबूरी मुस्लिम महिलाओ में अशिक्षा को बढ़ावा देती है; वही कम उम्र में शादी अपरिपक्व जोड़ो की जिन्दगी में नई दुशवारियाँ लाती है. कोई भी नेता यह सब नहीं कह पता क्योंकी ये बाते भले ही मुस्लिम समाज को दूरगामी फायदा पहुचती हो लेकिन एक “वोट बैंक” के हिसाब से ये बाते सुनने में अच्छी नहीं लगती है.
आज वही लोग मुस्लिम “वोट बैंक” के सबसे बड़े हितैषी बन जाते है जो सिर्फ तोड़ने की बात करते है न की जोड़ने की. यह कभी तो “राम मंदिर” के नाम पर होता है या कभी “गोधरा-गुजरात” के नाम पर. किसी को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि अयोध्या में मंदिर बनने या ना बनने से; ना तो मुस्लिम लोगो की गरीबी दूर होगी ना ही उनका जीवन स्तर ही सुधारेगा. मेरे विचार से “राम मंदिर” को जिस तरह से मुस्लिम अस्मिकता से जोड़ा गया है वह सरासर गलत है. आज अगर “अमेरिका” या “इज़राइल” “मक्का मदीना” पर आक्रमण कर के वह पर गिरिजाघर या कुछ और बनवा दे तो किसी भी मुस्लिम भाई की तरह मै भी इस बात का विरोध करूंगा. उसी तरह अगर किसी शासक ने हिन्दुओ के “भगवन राम” का मंदिर गिरा कर वहां पर मस्जिद बनाई है तो मै उम्मीद करता हूँ कि आम मुस्लमान भाई इस बात को समझेगे कि ये गलत है. इस संवेदनशील मुद्दे को सुलझाने के लिए कई शांतिपूर्ण हल निकल सकते है, लेकिन इस मुद्दे को जिन्दा रखने से ही “वोट बैंक” मजबूत रहता है यह कभी मुस्लिम वोट बैंक होता है और कभी हिन्दू वोट बैंक.
देश को यह समझाना होगा कि “इतिहास” नहीं बदला जा सकता है लेकिन “आज” जरूर बदला जा सकता है, और यही समय है जब भारतवर्ष दुनिया को दिखा दे कि इस देश में हिन्दू और मुस्लमान भाई की तरह रहते है. मुस्लिम भाइयो से यही उम्मीद करूंगा की वो अपने भाग्य के खुद मालिक बने, ना की कोई और. वो इस बात को समझे कि वो कैसे अपना, अपने परिवार और अपने बच्चो को बेहतर जिंदगी और अपने देश की प्रगति के साथ कदम से कदम मिला कर चल सकते है.
इन पंक्तियों के साथ ख़तम करना चाहूँगा की..
“हर इबादतगाह में एक वो ही तो बसता है, एक हम ही हैं जो फर्क किये जाते हैं… “
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