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बाप रे! फिर चुनाव!!

ग़ाफ़िल की कलम से
ग़ाफ़िल की कलम से
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बाप रे! फिर चुनाव!!…चौंकिए नहीं साहब! यह उलझन भारत की जनता की नहीं बल्कि चुनाव ड्यूटी में लगे कर्मचारियों की है। भई ड्यूटी करनी ही है तो उलझन क्यूं??… नहीं, उलझन है मैं ख़ुद भुक्तभोगी हूँ। चुनाव ड्यूटी की सबसे बड़ी उलझन होती है कि हमें वाहन स्वरूप मिलेगा क्या? कभी कभार भाग्य साथ दे दिया तो सवारी-गाड़ी मिल जाती है नहीं तो अक्सर ही भार-वाहन यानी ट्रक ही चुनाव कर्मचारियों को नसीब होता है। ऐसी हालत में क्या दुर्गति होती है कर्मचारियों की इसे बयान नहीं किया जा सकता। वैसे भी भारत में आदमी की कीमत भूसे से ज्यादा नहीं है सो सरकार और अधिकारी जो शायद आदमी नहीं भगवान हैं और भारत में जनता के भाग्य-विधाता भी (ऐसा स्वीकार कर लिया गया है) की निगाह ही आदमियों के बावत क्यों बदले? इस सन्दर्भ में मैंने एक लेख लिखा था अक्टूबर 10 के होने वाले त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव की ड्यूटी से लौटने के उपरान्त इसी मंच पर।अबकी बार इलेक्शन ड्यूटी में जाने के पहले ही वह लेख आप लोगों को पढ़वाना समीचीन समझता हूँ, आप अवश्य क्लिक करें और पढ़ें-

भारत में चुनाव : कर्मचारी बनाम भूसा

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