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‘मनोरंजन’ एक बहुआयामी शब्द, जिसकी विषय-वस्तु के अन्तर्गत वे सभी तत्त्व आते हैं जो मन को हल्का-फुल्का तथा प्रसन्न करके हमारे अन्दर नया उत्साह, नयी ऊर्जा का संचार कर सकते हैं। दिन भर की भागमभाग कार्य-पद्धति से ऊबा इंसान मनोरंजन हेतु सर्वाधिक सुलभ साधन समाचार पत्र या मीडिया के ऐसे ही किसी उपक्रम का सहारा लेता है, तो उसमें इस महत्त्वपूर्ण विषय के लिए निर्धारित कॉलम के अन्तर्गत उसे वस्तु स्वरूप मिलती हैं मात्र सिने जगत से सम्बन्धित कुछ ऊटपटांग ख़बरें अथवा अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के कामुक तथा उत्तेजक मुद्रा में कुछ दृश्य। क्या मनोरंजन का क्षेत्र इन्हीं व्यर्थ की चीजों तक सिमट कर रह गया है? आख़िर वे सारी विधाएँ जैसे गीत-ग़ज़ल, कविता-कहानियाँ, हास्य-व्यंग्य आदि, जो कभी इस शब्द की जान हुआ करती थीं, कहाँ पानी भरने चली गईं? कहते हैं कि शब्दों का ग़लत अथवा उसके सामर्थ्य को नज़रअंदाज कर बार-बार प्रयोग करने से वह अपनी मूल परिभाषा ही खो देता है। आने वाली पीढ़ी अगर मनोरंजन का अर्थ केवल सिनेमा, उससे जुड़ी तमाम अनर्गल ख़बर तथा अर्द्धनग्न सीन ही समझने लगे तो क्या बुरा? जब हमारा जिम्मेदार तबका मीडिया, जो कि शब्दों की ही खाता, शब्द ही ओढ़ता-बिछाता है, इस प्रकार शब्द की परिभाषा बदलने पर तुला है। अब मनोरंजन के कॉलम में गीत-ग़ज़ल, कविता-कहानियाँ, हास्य-व्यंग्य आदि जो मन की स्वस्थ रंजना करते हैं, नहीं होते। अब होते हैं मात्र सिनेमा से सम्बन्धित व्यर्थ प्रलाप। मीडिया द्वारा मनोरंजन के विशाल प्रांगण को जाने या अन्जाने धीरे-धीरे सिने जगत तक ही सिमटा देने का व्यापार तथा इस प्रकार शब्दों के साथ खिलवाड़ निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण और अक्षम्य है। पर महिमामण्डित तथा सर्वसमर्थ मीडिया, उसकी शान के खिलाफ़ कौन मुँह खोले। मीडिया भाई! नाराज़ न होना लेकिन सच यही है। या तो तुम भ्रम में हो या तो मुझ सीधी-सादी जनता को भ्रमित कर रहे हो। माफ करना तुम्हारे इस बलात्कारी उद्योग से यह प्यारा शब्द अपनी मूल प्रकृति ही न गवाँ बैठे।
-ग़ाफ़िल
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