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इंकलाब जिंदाबाद का नारा दे आजादी की लड़ाई में कूदे सरदार भगत सिंह को 23 मार्च 1931 को ब्रिटिश हुकूमत ने सरकार के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंकने के इल्जाम में फांसी की सजा सुनाई थी। महज 23 साल की उम्र में फांसी का फंदा हंसकर चूमने वाले भगत सिंह की यह 82वीं पुण्यतिथि है। 28 सितंबर 1907 को अविभाजित भारत के लायलपुर बंगा में जन्मे शहीदे आजम भगत सिंह बचपन से ही क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने लगे थे। उनके दादा अर्जुन सिंह आर्य समाजी थे। दो चाचा स्वर्ण सिंह व अजीत सिंह स्वाधीनता संग्राम में अपना जीवन समर्पित कर चुके थे। उनके पिता किशन सिंह कांग्रेस पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे। पारिवारिक संस्कारों के अलावा उनमें गदर पार्टी के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रति गहरा आकर्षण था।
खास तौर पर शहीद करतार सिंह सराभा उनके आदर्श थे, जिनका फोटो वह हमेशा जेब में रखते थे। महज 17 साल की उम्र में भगत सिंह ने लिखना शुरू किया। हिंदी, पंजाबी, उर्दू व अंग्रेजी चारों भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। छोटी-सी उम्र में खूब पढ़ा, दुनिया को करीब से देखा, समझा और व्यवस्था क्रांति में कूद पड़े। अंग्रेज सरकार के पब्लिक सेफ्टी बिल व ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल के खिलाफ उन्होंने 8 अप्रैल 1929 को असेंबली में बम फेंक अपनी गिरफ्तारी दी। जेल जीवन के दो वर्र्षो में भी भगत सिंह ने खूब अध्ययन, चिंतन व लेखन किया। उनके दिल में देशभक्ति के जज्बे के साथ भावी भारत की एक तस्वीर थी, जिसे साकार करने के लिए ही उन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। वैज्ञानिक-ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामाजिक समस्याओं के विश्लेषण की उनमें अद्भुत क्षमता थी। भगत सिंह ने कहा था, मेहनतकश जनता को आने वाली आजादी में कोई राहत नहीं मिलेगी। उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई। आज देश में प्रतिक्रियावादी शक्तियों की ताकत बढ़ी है। पूंजीवाद, बाजारवाद, साम्राज्यवाद के गठबंधन ने सारी दुनिया को अपने आगोश में ले लिया है। चारों ओर समस्याएं ही समस्याएं हैं। समाधान नजर नहीं आ रहे। ऐसे में भगत सिंह के फांसी पर चढ़ने से कुछ समय पहले के विचार याद आते हैं। उन्होंने कहा था, जब गतिरोध की स्थिति लोगों को शिकंजे में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्कि्रयता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी भावना पैदा करने की जरूरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती हैं। इससे इंसान की प्रगति रुक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है।
इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रांति की भावना ताजा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में एक हरकत पैदा हो। अफसोस कि आजादी मिलने के बाद नई पीढ़ी में क्रांति की वह भावना उत्तरोत्तर कम होती गई। इसके परिणामस्वरूप आज हमें कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। स्वतंत्र भारत में बढ़ती सांप्रदायिकता और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के उभार ने उनकी चिंताओं को सही साबित किया। बढ़ती सांप्रदायिकता और जातिवाद से लड़ने के लिए आज भी भगत सिंह के विचार कारगर हो सकते हैं। उन्होंने कहा था, सांप्रदायिक वहम और पूर्वाग्रह प्रगति के रास्ते में बड़ी रुकावट हैं। हमें इन्हें दूर फेंक देना चाहिए। हालिया सालों में साम्राज्यवाद का नंगा नाच सारी दुनिया ने देखा है। अफगानिस्तान, इराक आदि कई देश अमेरिकी साम्राज्यवाद के शिकार हुए हैं। भगत सिंह ने साम्राज्यवादियों के इरादे पहले ही भांप लिए थे। लाहौर साजिश केस में विशेष न्यायाधिकरण के सामने भगत सिंह ने कहा था, साम्राज्यवाद मनुष्य के हाथों मनुष्य और राष्ट्र के हाथों राष्ट्र के शोषण का चरम है। साम्राज्यवादी अपने हित और लूटने की योजनाओं को पूरा करने के लिए न सिर्फ न्यायालयों और कानूनों का कत्ल करते हैं, बल्कि साजिश भी रचते हैं। जहां लोग उनकी नादिरशाही शोषणकारी मांगें स्वीकार न करें या चुपचाप उनकी ध्वस्त कर देने वाली और घृणा योग्य साजिशें मानने से इन्कार कर दें तो वे निर्दोष लोगों का खून बहाने में भी संकोच नहीं करते। शांति व्यवस्था की आड़ में वे उसे भंग करते हैं। पराधीन भारत में अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ भगत सिंह द्वारा उस समय दिया गया यह बयान वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों में प्रासंगिक है।
अफगानिस्तान और इराक में लोकतंत्र की स्थापना के नाम पर अमेरिका ने जो किया वह किसी से छिपा नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संघ आदि आर्थिक संस्थाओं का इस्तेमाल अमेरिका अपने साम्राज्यवादी हितों की पूर्ति के लिए कर रहा है। भगत सिंह साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद के घोर विरोधी थे। सही मायनों में वह भारत में समाजवादी व्यवस्था कायम करना चाहते थे। उनकी जो भी छोटी सी जिंदगी रही उस पर यदि हम गौर करें तो जीवन के आखिरी चार साल क्रांतिकारिता के थे। इन चार सालों में भी, उन्होंने अपने दो साल जेल में बिताए, लेकिन इन चार सालों में उन्होंने एक सदी का सफर तय किया। क्रांति की नई परिभाषा दी। अंग्रेजी हुकूमत नौजवानों में भगत सिंह की बढ़ती लोकप्रियता और उनकी क्रांतिकारी छवि से परेशान थी। लिहाजा अवाम में बदनाम करने के लिए भगत सिंह को आतंकवादी तक साबित करने की कोशिश की गई, मगर क्रांति के बारे में खुद भगत सिंह के विचार कुछ और थे। वह कहते थे, क्रांति के लिए खूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा का कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि वर्तमान व्यवस्था, जो खुले तौर पर अन्याय पर टिकी हुई है, बदलनी चाहिए। भगत सिंह ने क्रांति शब्द की व्याख्या करते हुए कहा था कि क्रांति से हमारा अभिप्राय अंतत: एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था से है, जिसको इस प्रकार के घातक हमलों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता को मान्यता हो। यानी भगत सिंह हक और इंसाफ की लड़ाई में हिंसा को जायज नहीं मानते थे। उनकी लड़ाई सिर्फ व्यवस्था से थी। सत्ता में सर्वहारा वर्ग काबिज हो, यही उनकी जिंदगी का आखिरी मकसद था। देश के कई हिस्सों में चरमपंथियों की ओर से क्रांति के नाम पर जारी हिंसा, आतंकवाद को भगत सिंह के विचार आज भी आईना दिखाते हैं- आतंकवाद हमारे भीतर क्रांतिकारी चिंतन के पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति है। कुल मिलाकर भगत सिंह के विचारों में आज के कई कठिन सवालों और समस्याओं के हल मौजूद हैं। जरूरी यह है कि उनके विचारों को जन-जन तक पहुंचाया जाये। यही सच्चे अर्थो में उनके प्रति हमारी सच्ची श्रृद्धांजलि होगी।
इस आलेख के लेखक जाहिद खान हैं
Tags:Bhagat Singh, Bhagat Singh revolutionaryअर्जुन सिंह आर्य, चरमपंथियों, भगत सिंह
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