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गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की समृद्ध विरासत डेढ़ सौ साल की हो गई है, लेकिन यह निराशाजनक है कि आज इसका प्रभाव काफी कुछ बंगाल तक सीमित नजर आता है। बंगाल और इसके साथ-साथ बांग्लादेश में भी उनकी विरासत मुख्य रूप से उनके गीत माने जाते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि बंगाल पुनर्जागरण की महानतम प्रेरणा के रूप में गुरुदेव (1861-1941) ने भारतीय सांस्कृतिक जीवन में आधुनिकता को परिभाषित करने का काम किया। एक समृद्ध-प्रतिष्ठित बंगाली परिवार में जन्मे टैगोर की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा घर पर हुई। उन्हें शुरुआती जीवन से संगीत की शिक्षा ग्रहण करने का मौका मिला। उनके परिवार के सभी सदस्यों का सांस्कृतिक गतिविधियों से गहरा नाता था। ठाकुरबाड़ी की महिलाएं भी उतनी ही प्रसिद्ध थीं और विभिन्न क्षेत्रों में उनकी गिनती ट्रेंड सेटर के रूप की जाती थी। कविताएं लिखने से शुरुआत करके रवींद्रनाथ शीघ्र ही बंगाली साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर बन गए। उनके लिए यह कहना गलत न होगा कि उन्होंने कलात्मक बंगाली साहित्य को अकेले दम पर एक नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया। उन्होंने अपनी रचनाओं के लिए आधुनिक भाषा का चयन किया, जो संस्कृत से प्रभावित शुरुआती पीढ़ी वाली बंगाली भाषा के लिए ठंडी हवा के एक झोंके की तरह था। एक सफल लेखक और संगीतकार के रूप में उन्होंने 2200 से अधिक गीतों को लिखा और संगीतबद्ध किया, जिन्हें आज रवींद्र संगीत के नाम से जाना जाता है।
कविताओं और गीतों के अतिरिक्त उन्होंने अनगितन निबंध लिखे, जिनकी मदद से आधुनिक बंगाली अभिव्यक्ति के एक सशक्त माध्यम के रूप में उभरी। उनके कुछ उपन्यास भी बहुत प्रसिद्ध हुए, जिनमें चतुरंगा, चोखेर बाली और घरे-बाइरे प्रमुख हैं। टैगोर की विलक्षण प्रतिभा से नाटक और नृत्य नाटिकाएं भी अछूती नहीं रहीं। वह बंगाली में वास्तविक लघुकथाएं लिखने वाले पहले व्यक्ति थे। अपनी इन लघुकथाओं में उन्होंने पहली बार रोजमर्रा की भाषा का इस्तेमाल किया और इस तरह साहित्य की इस विधा में औपचारिक साधु भाषा का प्रभाव कम हुआ। अपने पूरे जीवन में वह रूपों और शैली के साथ प्रयोग करते।
चतुरंगा पहला भारतीय मनोवैज्ञानिक उपन्यास था, जिसमें घटनाएं पात्रों के दिमाग में घटती हैं। अलग-अलग मीटरों के साथ प्रयोग करने के बाद उन्होंने पहले बंगाली कवि के रूप में मुक्त छंद का इस्तेमाल किया और तब वह साठ वर्ष की उम्र पार कर चुके थे। ओपेन थिएटर में ठाकुर परिवार की सहभागिता के कारण ही भारतीय थिएटर को पहली बार सम्मान और मध्यम वर्ग के बीच स्वीकार्यता मिली। यह मुख्य रूप से रवींद्रनाथ टैगोर के प्रयास थे कि मध्यम वर्ग की महिलाओं और पुरुषों ने कलात्मक नृत्य कार्यक्रमों में भाग लेना शुरू किया। वैश्विक मित्रता की उनकी दृष्टि ही शांतिनिकेतन में विश्व भारती विश्वविद्यालय की भावना में अभिव्यक्त हो जाती है। यहां उन्होंने देश-विदेश के सर्वश्रेष्ठ बुद्धिजीवियों के साथ भारतीय प्रतिभाओं को निखारा। 1920 के दशक के अंतिम दौर में रवींद्रनाथ अमृता शेरगिल के साथ भारतीय चित्रकला में आधुनिकता का पुट लाए। यह आश्चर्यजनक है कि उन्होंने तब औपचारिक रूप से पेटिंग की शुरुआत करते हुए अपनी पहली प्रदर्शनी लगाई जब वह साठ की उम्र पार कर चुके थे। टैगोर विलक्षण प्रतिभा के धनी थी।
बेमिसाल बहुमुखी व्यक्तित्व वाले टैगोर ने दुनिया को शांति का संदेश दिया, लेकिन दुर्भाग्य से 1920 के बाद विश्व युद्ध से प्रभावित यूरोप में शांति और रोमांटिक आदर्शवाद के उनके संदेश एक प्रकार से अपनी आभा खो बैठे। एशिया में परिदृश्य एकदम अलग था। 1913 में जब वह नोबेल पुरस्कार (प्रसिद्ध रचना गीतांजलि के लिए) जीतने वाले पहले एशियाई बने तो यह एशियाई संस्कृति के लिए गौरव का न भुलाया जा सकने वाला क्षण था। श्रीलंका के राष्ट्रगान की रचना करने वाले आनंद समरकून विश्वभारती विश्वविद्यालय के शिष्य थे। इस गीत में खुद रवींद्रनाथ का खासा प्रभाव है। वह तीन बार श्रीलंका गए और श्रीलंकाई संस्कृति के पुनर्जागरण में उनकी प्रेरणा का विशेष महत्व है। 1924 में उन्होंने चीन की यात्रा की और वहां की संस्कृति का उन पर खासा प्रभाव पड़ा। इसके बाद ही उन्होंने शांतिनिकेतन में चीन भवन की स्थापना की। चीन के आधुनिक सांस्कृतिक इतिहास में उनकी यात्रा को एक बड़ी घटना के रूप में देखा जाता है। जब वह दक्षिण-पूर्व एशिया की यात्रा पर गए तो अपने साथ एक प्रतिनिधिमंडल भी ले गए।
कलाकारों, भाषाविदों और लेखकों ने भारत और इस क्षेत्र के बीच नजदीकी सांस्कृतिक संपर्क की फिर से खोज की। लगातार अनुरोधों के बावजूद वह कोरिया नहीं जा सके, लेकिन चार लाइन की अपनी प्रसिद्ध कविता-ईस्टर्न लाइट की रचना की, जो कोरियाई सभ्यता के गौरव की कहानी कहने वाली थी। कोरिया उस समय जापान के अधीन था, लेकिन इस कविता के बाद कोरियाई बुद्धिजीवियों ने अपनी खुद की संस्कृति पर यकीन करना आरंभ कर दिया। आज भी उनकी यह कविता कोरिया के स्कूल पाठ्यक्रम का हिस्सा है। वैसे रवींद्रनाथ के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण देश था जापान। वहां की संस्कृति ने उनके दिमाग पर अमिट छाप छोड़ी। उन्होंने जापानी शैली वाली छोटी कविताएं लिखना आरंभ किया और उन्हें शांतिनिकेतन में शामिल किया। पूरे देश में व्यापक भ्रमण के अलावा वह पांच महाद्वीपों में 30 से अधिक देशों में गए। आज जब भारत एक बार फिर दुनिया के दूसरे देशों के साथ सांस्कृतिक संबंध बनाने की कोशिश कर रहा है तब यह सही समय है जब हम अपनी महानतम सांस्कृतिक मूर्ति और उसकी वैश्विक विरासत को नए सिरे से तलाशें।
लेखक अनिद्य सेनगुप्ता भारतीय सूचना सेवा के अधिकारी हैं
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