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पांच दशक पुरानी पराजय

जागरण मेहमान कोना
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C.Uday Bhaskar1962 भारत के लिए भारी शर्मिदगी का दिन था। इस दिन जब विश्व क्यूबाई मिसाइल संकट से जूझ रहा था, चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने मकमहोन रेखा पारकर भारत पर हमला बोल दिया था। सैन्य बल के इस्तेमाल को लेकर चेयरमैन माओ का बयान था कि यह भारत और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सबक सिखाने के लिए था। इस घटना को 50 साल बीत चुके हैं। ऐसे में विचार करना जरूरी हो जाता है कि आधी सदी में भारत ने क्या-क्या सबक सीखे हैं? पुराने साजो-सामान से लैस भारतीय सैनिक ऐसे युद्ध में झोंक दिए गए जिसका नेतृत्व पूरी तरह दिशाहीन और भ्रमित था।




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प्रधानमंत्री नेहरू और रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन पूरी तरह अक्षम साबित हुए। देश को भारी शर्मिदगी झेलनी पड़ी। इस सैन्य विफलता पर जारी हेंडरसन-ब्रुक्स रिपोर्ट को अवांछित गोपनीयता के आवरण में लपेट दिया गया और सरकार के शीर्ष स्तर पर विफलता की पड़ताल का कोई प्रयास नहीं किया गया। पिछले दिनों वायु सेना प्रमुख चार्ली ब्राउन ने पेशेवर रुख अपनाते हुए 62 के युद्ध में वायु सेना का इस्तेमाल न करने की गलती का मुद्दा फिर से उठा दिया है। 1962 की इस राष्ट्रीय विपत्ति के बाद भारतीय नेतृत्व ने यह जानने के कुछ प्रयास जरूर किए कि क्या गलती हुई तथा उन खामियों को दूर कैसे किया जाए जिनकी वजह से तवांग में करारी हार हुई और असम को अपमानजनक ढंग से छोड़ने की नौबत आई। पिछले 50 सालों में भारतीय संसद ने चीन के मुद्दे पर शायद ही कभी सार्थक बहस और चर्चा की हो। इस विषय पर जो थोड़ी-बहुत बहस हुई भी है वह दलगत राजनीति की शिकार होकर रह गई। 62 के युद्ध के बाद कांग्रेस ने अपने नेता जवाहरलाल नेहरू को बचाने पर ध्यान केंद्रित रखा और 1971 की जीत के बाद इंदिरा गांधी को देवी बनाने में जुट गई। श्रीलंका की असफलता के बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बचाव में तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने का काम किया। यहां तक कि 1999 के कारगिल युद्ध और 2008 के मुंबई आतंकी हमले पर भी राष्ट्रीय सुरक्षा के पुख्ता दीर्घकालीन उपायों पर सार्थक बहस करने के बजाय संसद में सतही, संक्षिप्त और रस्मअदायगी वाली चर्चा ही हुई।


जहां तक चीन और 1962 का संबंध है, यह दोहराने की आवश्यकता है कि अब ऐसे अनुभव की पुनरावृत्ति होने की संभावना नहीं है। इसका यह आशय है कि अगर युद्ध की नौबत आती है तो पिछले 50 सालों की तुलना में अब भारत अपनी संप्रभुता और अखंडता की रक्षा बेहतर ढंग से करने में समर्थ है। दोनों देशों का घरेलू संदर्भ काफी बदल चुका है। साथ ही क्षेत्रीय और वैश्विक वातावरण का स्वरूप भी अब एक अलग व्यवस्था में अधिक तकनीकी-सामरिक हो गया है, जिसमें परमाणु हथियार और मिसाइलों ने युद्ध की दशा-दिशा को बदलकर रख दिया है। इन सबसे ऊपर वैश्वीकरण का विद्यमान ढांचा तथा एक-दूसरे देशों की परस्पर निर्भरता ने नासमझी भरी सैन्य कार्रवाई की आशंका कम कर दी हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर नेतृत्व का उदासीन रुख इस बात का संकेतक है कि भारत ने 1962 के युद्ध से कितना कम सीखा है। बीजिंग में मैंने 1962 युद्ध और इसके प्रति चीन के रुख के बारे में जानना चाहा था। मेरे चीनी दुभाषिये इस प्रकरण पर विस्तार से बात नहीं करना चाहते थे और इसे ऐतिहासिक अनुभव कहकर बात खत्म कर देते थे। जब मैंने किन्हीं दस्तावेजों या फिर अन्य साक्ष्यों के बारे में जोर दिया तो मुझे घुमा-फिरा


कर यही बताया गया कि उस समय भारतीय सैनिकों के आत्मसमर्पण से चीनी नेतृत्व भौचक्का रह गया था। चीनी यह देखकर भी हक्के-बक्के रह गए कि भारतीय सैनिक कितने खराब और पुराने हथियारों से लड़ रहे थे। यही नहीं 14,000 फीट की ऊंचाई पर अपनी मातृभूमि की रक्षा में रत भारतीय सैनिकों को सूती कपड़ों, ढीले-ढाले स्वेटरों तथा कैनवास शूज में देखकर भी चीनी हैरान रह गए। 62 की करारी हार के पांच दशक बाद भी यह देखकर बेहद तकलीफ होती है कि भारतीय सेना अभी जवानों द्वारा पहने जाने वाले स्पो‌र्ट्स शूज को बदलने के बारे में कोई फैसला नहीं कर पाई है। जो वेशभूषा 1962 में निर्धारित थी वही आज भी है। आठ लाख जूतों की आपूर्ति पर फैसला भारत की लालफीताशाही का शिकार हो गया है। बताया जा रहा है कि इस मुद्दे को 12 अक्टूबर को होने वाले सेना के कमांडरों के सम्मेलन में उठाया जाएगा, किंतु राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर उदासीनता और उपेक्षापूर्ण रवैया चिंता का विषय है। इस साल पांच अक्टूबर को दो अन्य घटनाओं की भी पचासवीं वर्षगांठ मनाई गई। पहली है जेम्स बांड की पहली फिल्म और दूसरा बीटल्स के पहले गाने के जारी होने की पचासवीं वर्षगांठ। इस फिल्म और गाने की वर्षगांठ पर भारत के मीडिया का झूमना समझ से परे है। 20 अक्टूबर, 1962 की पचासवीं वर्षगांठ जल्द आने वाली है। यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत में इसे कैसे लिया जाता है। जिन परिवारों ने अपने प्रियजनों को खो दिया है वे चुपचाप उनके बलिदान पर विलाप करेंगे। जब बहादुर शहीदों की बात आती है तो भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान की याददाश्त कमजोर पड़ जाती है। उनका स्मरण करने में सरकार कितनी कृपण और निर्दयी हो सकती है। अभी तो कैनवास शूज पर भी फैसला नहीं हो पाया है, तोपों और लड़ाकू विमानों की बात ही दूर है।


लेखक  सी. उदयभाष्कर सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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