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विदेश राज्यमंत्री परनीत कौर ने लोकसभा में बताया है कि पाकिस्तानी जेलों में आज भी 662 भारतीय कैदी बंद है, इनमें से 54 कैदी 1971 के युद्धबंदी सैनिक हैं। बीते 40 सालों में शायद ही सरकार ने कोई कदम उठाए हैं जिससे इनके परिवारों को लगे कि सरकार वाकई में चिंतित है। देश की नई पीढ़ी को तो शायद यह भी याद नहीं होगा कि 1971 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में देश का इतिहास व भूगोल बदलने वाले कई रणबांकुरे अभी भी पाकिस्तान की जेलों में नारकीय जीवन बिता रहे हैं। उन जवानों के परिवार वाले अपने लोगों के जिंदा होने के सुबूत देते हैं, लेकिन भारत सरकार महज औपचारिकता निभाने से अधिक कुछ नहीं करती है। इस बीच ऐसे फौजियों की जिंदगी पर बॉलीवुड में कई फिल्में बन गई हैं और उन्हें दर्शकों ने सराहा भी है, लेकिन वे नाम अभी भी गुमनामी के अंधेरे में हैं जिन्हें न तो शहीद माना जा सकता है और न ही गुमशुदा। भारत-पाक रिश्तों के लिए भारत हर समय शिमला समझौते के अनुरूप बगैर किसी मध्यस्थ के बातचीत की दुहाई देता रहा है। यह विडंबना और शर्मनाक है कि जिन फौजियों के खून से शिमला समझौते की इबारत लिखी गई थी, उन्हें आज सरकार और समाज दोनों भुला बैठे हैं। जब कभी भी पाकिस्तान से हमारे मधुर संबंधों की बात आती है तब सीमा पर घुसपैठ और आतंकवाद या फिर व्यापार बढ़ाने पर जोर-शोर से चर्चा होती है, लेकिन इन फौजियों की नहीं।
1965 और 1971 में देश की एकता-अखंडता का जिम्मा जिन्होंने उठाया था उनका आज तक कोई अता-पता नहीं है। हर साल संसद में यह स्वीकार किया जाता रहा है कि पाकिस्तान की जेलों में हमारे 70 सैनिक लापता हैं, जिनमें से 54 जवान 1971 के युद्धबंदी हैं। उम्मीद की आस में इन जवानों के परिजन अब लिखा-पढ़ी करके थक गए हैं। एक लापता फौजी मेजर अशोक कुमार सूरी के पिता डा. आरएलएस सूरी के पास तो कई प्रमाण हैं जो उनके बेटे के पाकिस्तानी जेल में बंद होने का सुबूत देती है। डा. सूरी को 1974 व 1975 में बेटे के दो पत्र मिले जिसमें उसने 20 अन्य भारतीय फौजी अफसरों के साथ पाकिस्तान जेल में होने की बात लिखी थी। पत्र का बाकायदा हस्तलिपि परीक्षण कराया गया और यह सिद्ध भी हुआ कि लेखनी मेजर सूरी की ही है। 1979 में डा. सूरी को किसी अनजान ने फोन करके बताया कि उनके पुत्र को पाकिस्तान में उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रदेश की किसी भूमिगत जेल में भेज दिया गया है ।
मेजर सूरी सिर्फ 25 साल की उम्र से ही पाकिस्तान की कैद में हैं। पाकिस्तान जेल में कई महीनों तक रहने के बाद लौटे एक भारतीय जासूस मोहन लाल भास्कर ने लापता विंग कमांडर एचएस गिल को पाक जेल में देखने का दावा किया था। लापता फ्लाइट लेफ्टिनेंट वीवी तांबे को पाकिस्तानी फौज द्वारा जिंदा पकड़ने की खबर संडे पाकिस्तान आब्जर्वर के 5 दिसंबर, 1971 के अंक में छपी थी। वीर तंाबे का विवाह बैडमिंटन की राष्ट्रीय चैंपियन दमयंती से हुआ था। उनकी शादी के मात्र डेढ़ साल बाद ही लड़ाई छिड़ गई थी। तब से 40 साल हो गए और दमयंती आज तक अपने पति की राह देख रही हैं। सेकंड लेफ्टिनेंट सुधीर मोहन सब्बरवाल जब लड़ाई के लिए घर से निकले थे तब मात्र 23 साल के थे । इसी तरह कैप्टन रवींद्र कौरा को अदम्य शौर्य प्रदर्शन के लिए सरकार ने वीर चक्र से सम्मानित किया था, लेकिन वह अब किस हाल में और कहां हैं इसका जवाब नहीं है। पाकिस्तान के मरहूम प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दिए जाने के तथ्यों पर छपी एक किताब भारतीय युद्धवीरों के पाक जेल में होने का पुख्ता सबूत मानी जा सकती है।
बीबीसी संवाददाता विक्टोरिया शोफील्ड की किताब भुट्टो, ट्रायल एंड एक्जीक्यूशन में भुट्टो को फांसी पर लटकाने से पहले कोटलखपतराय जेल लाहौर में रखे जाने का जिक्र है। किताब में लिखा है कि भुट्टो को पास की बैरक से हृदयविदारक चीख-पुकार सुनने को मिलती थीं। भुट्टो के एक वकील ने पता किया था कि वहां 1971 के भारतीय युद्धबंदी कैद थे, जो लगातार उत्पीड़न के कारण मानसिक तौर पर विक्षिप्त हो गए थे। अब लगता है कि इन युद्धवीरों की वापसी के मसले को सरकार भूल ही गई है। इससे पता चलता है कि युद्ध के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्धारित कायदे-कानून महज कागजी दस्तावेज भर हैं। इनका क्रियान्वयन से कोई वास्ता नहीं है। संयुक्त राष्ट्र के वियना समझौते में साफ जिक्र है कि युद्ध के पश्चात रेडक्रॉस की देखरेख में सैनिक अपने-अपने देश भेज दिए जाएंगे। दोनों देश आपसी सहमति से किसी तीसरे देश को इस निगरानी के लिए नियुक्त कर सकते हैं। इस समझौते में सैनिक बंदियों पर क्रूरता पर कड़ी पाबंदी है, लेकिन भारत-पाक के मसले में यह कायदा-कानून कहीं दूर-दूर तक नहीं दिखा।
1972 में अतंरराष्ट्रीय रेडक्रॉस ने भारतीय युद्धबंदियों की तीन लिस्ट जारी करने की बात कही थी, लेकिन सिर्फ दो सूची ही जारी हुई। एक गुमशुदा फ्लाइंग ऑफिसर सुधीर त्यागी के पिता आरएस त्यागी का दावा है कि उन्हें खबर मिली थी कि तीसरी सूची में उनके बेटे का नाम था, लेकिन वह सूची अचानक गायब हो गई। भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारी मानते हैं कि हमारी फौज के कई जवान पाक जेलों में नारकीय जीवन भोग रहे हैं। उन्हें शारीरिक यातनाएं दी जा रही हैं। करनाल के करीम बख्श और पंजाब के जागीर सिंह का पाक जेलों में लंबी बीमारी व पागलपन के कारण निधन हो गया। 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान द्वारा युद्धबंदी बनाया गया सिपाही धर्मवीर 1981 में जब वापस आया तो पता लगा कि यातनाओं के कारण उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है।
सरकार का दावा है कि कुछ युद्धबंदी कोटलखपतराय लाहौर, फैसलाबाद, मुल्तान, मियांवाली और बहावलपुर जेल में बंद हैं, पर इन दावों पर राजनीति के दांवपेंच हावी हैं। वियना समझौता के तहत सैनिकों के मारे जाने बाबत जो प्रमाण होने चाहिए पाकिस्तान सरकार उनमें से एक भी प्रमाण इन 54 जवानों के लिए दे नहीं पाई है। पाकिस्तान सरकार ने लापता फौजियों को जेल में पहचानने के लिए एक भारतीय प्रतिनिधि मंडल को आने का न्यौता दिया था, लेकिन पाकिस्तान के ही मानवाधिकर कार्यकर्ताओं को जेल दिखाने के नाटक किए जाते रहे। अपनी गलती छुपाने के लिए पकिस्तान सरकार ने भारतीय अभिभावकों के सामने 160 साधारण भारतीय बंदी शिनाख्त के लिए पेश किए जिनमें एक भी फौजी नहीं था। जेल अधिकारियों ने ही दबी जुबान में कह दिया कि उन्हें गलत जगह भेजा गया है। भारत सरकार लापता फौजियों के परिवारजनों को सिर्फ आस दिए हैं कि उनके बेटे-भाई जीवित हैं, लेकिन कहां है और किस हाल में हैं कोई पता नहीं? वह कब और कैसे वापस आएंगे इसका भी आश्वासन नहीं दिया गया। उन युद्धवीरों की चिंता न तो हमारे राजनेताओं को है और न ही आला फौजी अफसरों को।
लेखक पंकज चतुर्वेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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