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आर्थिक फैसले और राजनीति

जागरण मेहमान कोना
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अर्थव्यवस्था के मामले में भारत को 2011 में 1991 वाली स्थिति में पहुंचते देख रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता


इस मुश्किल समय में भारतीय राजनेताओं की मानसिकता के बारे में एक प्रसंग बताना समीचीन होगा। 1991 की गर्मियों में जनता दल के पतन के बाद जब कांग्रेस सत्ता में वापस लौटी तो प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के सामने वित्त मंत्रालय ने आर्थिक सुधारों की वकालत करते हुए एक प्रस्ताव पेश किया। इन प्रस्तावों में अर्थव्यवस्था का विनियमन भी शामिल था। मंत्रिमंडल में इस प्रस्ताव का अगर खुल्लमखुल्ला विरोध नहीं हुआ तो इसके बारे में गहरा संदेह जरूर व्यक्त किया गया। दुविधा से निकलने के लिए राव ने इंदिरा गांधी के एक विश्वासपात्र रहे राजनेता के पास सलाह लेने के लिए प्रस्ताव भेजा। उसने प्रस्ताव का अध्ययन किया और पूछा कि क्या यह उचित नहीं होगा कि प्रस्ताव की भूमिका में जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के कुछ उद्धृरणों को डाल दिया जाए। इससे निश्चित तौर पर मंत्रिमंडल की दुविधा कम होगी कि ये प्रस्ताव इन नेताओं की सोच के अनुरूप है या नहीं। समझदार राव ने इस सलाह को मानने में जरा भी देर नहीं की। इस पर दोबारा काम करके मंत्रिमंडल में पेश किया गया और इस बार प्रस्ताव का विरोध ठंडा हो गया था और मंत्रिमंडल ने उदारीकरण को नेहरू और इंदिरा के समाजवाद की भांति सर्वोच्च स्तर पर रखते हुए प्रधानमंत्री को इन्हे लागू करने की हरी झंडी दे दी।


भारत उन दिनों से काफी आगे निकल आया है, जब अकुशलता और आलस्य को आर्थिक गुण माना जाता था और जब कर की व्यक्तिगत दर का उच्चतम स्लैब 97 प्रतिशत तक पहुंच गया था। 1991 में मनमोहन सिंह के बजट से हुए पहले भारी आर्थिक बदलाव के बारे में उल्लेखनीय है कि ये धूमधाम से नहीं छुप-छुप कर किए गए। 1991 के भुगतान संकट और भारत के स्वर्ण भंडार के एक हिस्से को विदेश में भौतिक रूप से गिरवी रखने के भावनात्मक सदमे ने लाइसेंस-परमिट-कोटा राज पर आघात किया। इसी प्रकार 1998 में पोखरण-2 परीक्षण के बाद पश्चिम जगत द्वारा भारत पर थोपे गए अनेक प्रतिबंधों के कारण ही विदेशी पूंजी पर लगे बहुत से प्रतिबंध ढीले करने पड़े और अटल बिहारी वाजपेयी को अपनी पार्टी के स्वदेशी सिद्धांत को तिलांजलि देनी पड़ी।


2011 में भी भारत करीब-करीब वैसी ही स्थिति में खड़ा है। अमेरिका और यूरोप में आर्थिक संकट से कोई भी देश अप्रभावित नहीं है। भारत की सकल घरेलू उत्पाद दर गिरकर 7 प्रतिशत पर आ गई है, राजकोषीय घाटा बजट के आंकड़ों को तोड़कर जीडीपी के छह प्रतिशत पर पहुंच गया है। मार्च 2009 से ब्याज दरों में 13 बार बढ़ोतरी के बावजूद महंगाई 10 फीसदी के आसपास मंडरा रही है, जनवरी से अब तक सेंसेक्स 22 प्रतिशत गिर गया है और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश आना करीब-करीब बंद हो गया है। ध्यान दें कि 2010 में यह रिकॉर्ड 29 अरब डालर पर पहुंच गया था। पिछले तीन माह में ही रुपये का मूल्य 15 फीसदी घट गया है। इससे आयात महंगा हो गया है और महंगाई बढ़ना दुष्चक्र में बदल गया है। विशेष तौर पर परेशान करने वाली बात यह है कि घिरा हुआ राजनीतिक तबका उसी विचारधारा पर आ जाता है जो 1991 में ही चुकी हुई मान ली गई थी। राजकोषीय घाटे पर रुख एक ऐसी सरकार का आदर्श उदाहरण है, जिसे किसी बात की चिंता नहीं है।


अमेरिका में सरकार व रिपब्लिकन नियंत्रित सीनेट में एक हजार अरब डॉलर से अधिक के घाटे को पाटने में विफलता को लेकर गतिरोध है और यूरोजोन, खासतौर पर ब्रिटेन में राजकोषीय घाटे से जुड़े राजनीतिक गतिरोध की जड़ बना हुआ है। फिर भी भारत में, राजनीतिक शब्दकोष से राजकोषीय मजबूती का शब्द ही खत्म हो गया है। बेहद महंगी और अकुशल केंद्र प्रायोजित कल्याणकारी योजनाओं को पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। इस तंत्र के और विस्तार की तैयारी चल रही है। राजनीतिक तंत्र में ऐसी मूढ़ता भरी है कि जैसे ही राहुल गांधी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के बुनकरों के लिए पैकेज मांगा वाणिज्य मंत्रालय ने तुरंत 3844 करोड़ रुपये जारी कर दिए। इसीलिए ममता बनर्जी मानती है कि मुफ्त वितरण उनका जन्मसिद्ध अधिकार है।


कहा जाता है कि यूरोप में खर्च में कटौती अब सामान्य बात हो गई है। आर्थिक रूप से नाजुक भारत में फिजूलखर्ची मानक बन गई है-दूसरे शब्दों में भिक्षावृत्ति का पसंदीदा राहुल विकल्प। भारत अपनी चादर से अधिक पैर फैला रहा है और किसी को इसकी परवाह नहीं है। आर्थिक रूप से संकट में घिरते जा रहे अधिकांश देशों में विकास के रास्ते में आने वाली अड़चनों को हटाने का रुझान है। दूसरी तरफ भारत में ‘सब ठीक है’ का दिखावा करने और उद्यमियों के कष्टों को बढ़ाने की प्रवृत्ति है। लगता है कि भारत आर्थिक विनाश के मुहाने पर खड़ा है, किंतु इसके दो उल्लेखनीय पहलू है। पहला यह कि इस बात का अहसास किसी को नहीं है कि समस्या केवल महंगाई तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह आर्थिक विकास के प्रमुख केंद्रों को प्रभावित कर रही है। दूसरे, यह मान लिया गया है कि अधिक कड़ा और जड़ नियामक तंत्र ही निजी क्षेत्र में भ्रष्टाचार रोकने का उपाय है। यह कहना पड़ेगा कि जवाहरलाल नेहरू ने जनमानस में प्रगतिशीलवाद के भाव भरकर वास्तव में उल्लेखनीय काम किया। दो दशक के उदारीकरण के बाद भी भारत ने अपने पुराने बुरे दिनों की तरफ पीठ नहीं मोड़ी। आर्थिक सुधारों के तभी मायने है, जब इनके साथ बौद्धिक क्रांति भी लाई जाए।


लेखक स्वप्न दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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