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संस्थाओं पर नई बहस का समय

जागरण मेहमान कोना
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Subhash Kashyap2जी मामले में एक के बाद हो रहे नए खुलासे और अदालत से सरकार की बढ़ती तकरार निश्चित ही स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती। पहले आओ पहले पाओ की नीति के आधार पर वर्ष 2008 में हुए स्पेक्ट्रम के आवंटन का मामला अब वित्त मंत्रालय के नोट प्रकरण के कारण फिर से सुर्खियों में है। इस प्रकरण का पटाक्षेप जो भी हो, लेकिन इतना तो तय है कि इससे संप्रग सरकार की छवि को और अधिक धक्का पहुंचेगा। इस पूरे मामले की अदालत में हो रही सुनवाई और जजों की टिप्पणियों के मद्देनजर सरकार द्वारा यह कहा जाना कि सुप्रीम कोर्ट अपनी लक्ष्मण रेखा न लांघे और एक दायरे तक ही सीमित रहे, किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं माना जा सकता। यह इसलिए भी कि यदि सुप्रीम कोर्ट अपनी सीमा लांघता भी है तो गलत नहीं होगा, क्योंकि उसे यह अधिकार संविधान ने दिया हुआ है और उससे यह विशेषाधिकार छीना नहीं जा सकता और न ही उसे इस तरह नसीहत दी जा सकती है। यदि सुप्रीम कोर्ट गलत फैसला भी देता है तो उसे अनिवार्य रूप से स्वीकार करना होगा। हां, यदि सरकार को उस पर कोई आपत्ति है तो वह संसद में कोई नया कानून बनाने के लिए स्वतंत्र है। संभवत: यही कारण रहा कि सुप्रीम कोर्ट को प्रत्युत्तर में सरकार को झिड़क लगाते हुए कहना पड़ा कि यदि सीता ने लक्ष्मण रेखा न लांघी होती तो राक्षसों का संहार नहीं होता?


अदालत द्वारा की गई इस टिप्पणी का आशय भी यही है कि यदि विधायिका अथवा कार्यपालिका अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं करते अथवा इससे चूकते हैं तो जनहित और देशहित में अदालत के लिए इस तरह का हस्तक्षेप करना जरूरी हो जाता है। संविधान में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को पूर्ण स्वायत्तता देते हुए इनके कामों का स्पष्ट बंटवारा किया गया है। विधायिका का काम जहां कानूनों का निर्माण करना है वहीं कार्यपालिका का काम इन कानूनों का सही क्रियान्वयन सुनिश्चित करना है। इस रूप में न्यायपालिका का काम विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों की समीक्षा और उसकी व्याख्या करने के अलावा कार्यपालिका के कार्य निष्पादन में आई खामियों पर नजर रखना और उसे ठीक करवाने के लिए यथोचित निर्णय व नियंत्रण रखना भी है। अब जबकि सरकार बार-बार न्यायपालिका पर प्रहार कर रही है और उसके अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठा रही है तो किसी अप्रिय स्थिति से बचने के लिए बेहतर यही होगा कि संसद में मिल-बैठकर लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वतंत्रता पर समग्रता में विचार किया जाए। चर्चा के समय इस पर भी विचार हो कि संविधान में निश्चित किए गए लक्ष्यों को किस तरह हासिल किया जाए ताकि लोकतांत्रिक संस्थाओं के बीच होने वाले किसी भी टकराव से बचा जा सके।


इस पूरे संदर्भ में यदि पी. चिदंबरम की स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में भूमिका को लेकर कोई सवाल उठाया जा रहा है अथवा उसे कोर्ट में चुनौती दी जा रही है तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। यदि कोई गलत काम हुआ है तो उस पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। सरकार को भी चाहिए कि वह इस मामले से जुड़े सभी साक्ष्य अदालत के सामने रखे और निर्णय आने तक इंतजार करे। जहां तक वित्त मंत्रालय के एक कनिष्ठ अधिकारी के नोट का सवाल है तो यह आरटीआइ के माध्यम से हासिल किया गया तथ्य है और इसे कानूनी साक्ष्य के तौर पर अदालत में इस्तेमाल किया जा सकता है। इस बारे में एक प्रश्न यह भी उठाया जा रहा है कि पी. चिदंबरम पर कैबिनेट की बैठक में स्पेक्ट्रम आवंटन के तौर-तरीकों को लेकर उनके द्वारा रखे गए तर्क के आधार पर मुकदमा चलाया जा सकता है अथवा नहीं? इस सवाल को उठाते समय हमें नहीं भूलना चाहिए कि कैबिनेट में रखे गए तर्क मंत्री विशेष के अवश्य हो सकते हैं, लेकिन फैसला किसी एक का नहीं, बल्कि सामूहिक होता है। इसलिए स्वाभाविक है कि जिम्मेदारी भी सामूहिक बनती है और इस आधार पर किसी एक व्यक्ति को अलग नहीं कर सकते। संविधान में भी मंत्रिमंडल के फैसले को सामूहिक माना गया है-भले ही वह किसी एक के द्वारा ही क्यों न लिया गया हो। आज सभी जानते हैं कि देश में जब आपातकाल लागू किया गया था तो वह निर्णय मंत्रिमंडल ने मिलकर नहीं लिया था, बल्कि उस पर सबकी सहमति कराई गई थी। इस तरह मंत्रिमंडल के निर्णय भी कई बार थोपे हुए होते हैं अथवा एकतरफा होते हैं।


यहां हम इस तथ्य को भी नहीं भुला सकते कि मंत्रिमंडल के सामूहिक फैसलों अथवा बातचीत के विषय को अदालत में नहीं ले जाया जा सकता और न ही उन्हें चुनौती दी जा सकती है। यह विशेषाधिकार मंत्रिमंडल को इसलिए दिया गया है ताकि वह स्वतंत्र होकर देशहित में बिना किसी भय और बाधा के निर्णय ले सके। यहां पर सवाल जो भी हों, लेकिन यह कहा जा सकता है कि 2जी मामले को लेकर आज पूरे देश में मंत्रियों के कारनामे और उनकी भूमिका को लेकर हर कोई चर्चा कर रहा है और यह जानना चाह रहा है कि आखिर इसके लिए दोषी कौन है और कौन-कौन इसमें शामिल है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर तभी मिल सकता है जब अदालत और जांच एजेंसियों को स्वतंत्र रूप से पड़ताल करने दिया जाए और यह काम तभी संभव है जब सरकार ऐसा होने दे। इसलिए मामले को सिर्फ कानूनी पेंच में उलझाने की बजाय भविष्य के लिए नजीर के तौर पर लिया जाना चाहिए ताकि फिर इस तरह किसी घपले-घोटाले को होने से रोका जा सके।


लेखक सुभाष कश्यप संविधान मामलों के विशेषज्ञ हैं


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